महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 181 श्लोक 1-14
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एकाशीत्यधिकशततम (181) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
शुभशुभ कर्मों का परिणाम कर्ता को अवश्य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि दान, यज्ञ, तप अथवा गुरूशुश्रूषा पुण्यकर्म है और उसका कुछ फल होता है तो वह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- राजन्! काम, क्रोध आदि दोषों से युक्त बुद्धि की प्रेरणा से मन पापकर्म में प्रवृत होता हैं। इस प्रकार मनुष्य अपने ही कार्यों द्वारा पाप करके दु:खमय लोक (नरक) में गिराया जाता है। पापाचारी दरिद्र मनुष्य दुर्भिक्ष से दुर्भिक्ष, क्लेश से क्लेश और भय से भय पाते हुए मरे हुओं से भी अधिक मृतकतुल्य हो जाते हैं। जो श्रद्धालु, जितेन्द्रिय, धनसम्पन्न तथा शुभकर्म–परायण होते हैं, वे उत्सव से अधिक उत्सव को, स्वर्ग से अधिक स्वर्ग को तथा सुख से अधिक सुख को प्राप्त करते हैं। नास्तिक मनुष्यों के हाथ में हथकड़ी डालकर राजा उन्हें राज्य से दूर निकाल देता है और वे उन जंगलों में चले जाते हैं , जो मत वाले हाथियों के कारण दुर्गम तथा सर्प और चोर आदि के भय से भरे हुए होते हैं । बढ़कर उन्हें और क्या दण्ड मिल सकता है? जिन्हें देवपूजा और अतिथिसत्कार प्रिय है, जो उदार हैं तथा श्रेष्ठ पुरूष जिन्हें अच्छे लगते हैं, वे पुण्यात्मा मनुष्य अपने दाहिने हाथ के समान मंगलकारी एवं मन को वश में रखने वाले योगियों को ही प्राप्त होने योग्य मार्गपर आरूढ़ हेाते हैं। जिनका उद्देश्य धर्म नहीं है, ऐसे मनुष्य मानव–समाज के भीतर वैसे ही समझे जाते हैं, जैसे धान में थोथा पौधा और पंखवाले जीवों में मच्छर। जिस–जिस मनुष्य ने जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्ता पुरूष शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह भी उतनी ही तेजी के साथ उसके पीछे जाता है। जब वह सोता है तो उसका कर्मफल भी उसके साथ ही सो जाता है । जब वह खड़ा होता है तो वह भी पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलता है तो उसके पीछे–पीछे वह भी चलने लगता है। इतना ही नहीं, कोई कार्य करते समय भी कर्म–संस्कार उसका साथ नहीं छोड़ता। सदा छाया के समान पीछे लगा रहता है। जिस–जिस मनुष्य ने अपने–अपने पूर्वजन्मों में जैसे–जैसे कर्म किये हैं, वह अपने ही किये हुए उन कर्मों का फल सदा अकेला ही भोगता है। अपने–अपने कर्मका फल एक धरोहर के समान है, जो कर्मजनित अदृष्ट के द्वारा सुरक्षित रहता है। उपयुक्त अवसर आने पर यह काल इस कर्मफल को प्राणिसमुदाय के पास खींच लाता है। जैसे फूल और फल किसी की प्रेरणा के बिना ही अपने समयपर वृक्षों में लग जाते हैं, उसी प्रकार पहले के किये हुए कर्म भी अपने फलभोग के समय का उल्लंघन नहीं करते। सम्मान–अपमान, लाभ–हानि तथा उन्नति–अवनति - ये पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार बार–बार प्राप्त होते हैं और प्रारब्धभोग के पश्चात् निवृत्त हो जाते हैं। दु:ख अपने ही किये हुए कर्मों का फल है और सुख भी अपने ही पूर्वकृत कर्मों का परिणाम है। जीव माता की गर्भशय्या में आते ही पूर्वशरीर द्वारा उपार्जित सुख–दु:ख का उपभोग करने लगता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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