महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 188 श्लोक 1-16

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अष्‍टाशीत्‍यधिकशततम (188) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टाशीत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

वर्णविभागपूर्वक मनुष्‍यों की और समस्‍त प्राणियों की उत्‍पत्ति का वर्णन

भृगुजी कहते हैं- मुने! ब्रह्मजीने सृष्टि के प्रारम्‍भ में अपने तेज से सूर्य और अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले ब्राह्मणों, मरीचि आदि प्रजा‍पतियों को ही उत्‍पन्‍न किया। उसके बाद भगवान ब्रह्माने स्‍वर्ग–प्राप्‍ति के साधनभूत सत्‍य, धर्म, तप, सनातन वेद, आचार और शोच के नियम बनाये। तदनन्तर देवता, दानव, गन्धर्व, दैत्य, असुर, महान् सर्प, यक्ष, राक्षस, नाग, पिशाच और मनुष्‍यों को उत्पन्न किया। द्विजश्रेष्‍ठ! फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र–इन चारों वर्णों की रचना की और प्राणिसमूहों में जो अन्य समुदाय हैं, उनकी भी सृष्टि की। ब्राह्मणों का रंग श्‍वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्‍यों का पीला तथा शूद्रों का काला बनाया। भरद्वाज ने पूछा- प्रभों! यदि चारों वर्णों में से एक वर्ण के साथ दूसरे वर्ण का रंग–भेद है, तब तो सभी वर्णों में विभिन्न रंग के मनुष्‍य होने के कारण वर्ण संकरता ही दिखायी देती है। काम, क्रोध, भय, लोक, शोक, चिन्ता, क्षुधा और थकावट का प्रभाव हम सब लोगों पर समान रूप से ही पड़ता है; फिर वर्णों का भेद कैसे सिद्ध होता है? हम सब लोगों के शरीर से पसीना, मल, मूत्र, कफ, पित्‍त और रक्‍त निकलते हैं। ऐसी दशा में रंग के द्वारा वर्णों का विभाग कैसे किया जा सकता है? पशु, पक्षी, मनुष्‍य आदि जंगल प्राणियों तथा वृक्ष आदि स्थावर जीवों की असंख्‍य जातियां हैं। उनके रंग भी नाना प्रकार के हैं, अत: उनके वर्णों का निश्‍चय कैसे हो सकता है? भृगुजी ने कहा --- मुने! प‍हले वर्णों में कोई अन्तर नहीं था, ब्रह्माजी से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत् ब्राह्मण ही था। पीछे विभिन्न कर्मों के कारण उनमें वर्णभेद हो गया। जो अपने ब्राह्मणोचित धर्म का परित्याग करके विषयभोग के प्रेमी, तीखे स्वभाववाले, क्रोधी और साहस का काम पसंद करने वाले हो गये और इन्हीं कारणों से जिनके शरीर का रंग लाल हो गया, वे ब्राह्मण क्षत्रिय–भाव को प्राप्‍त हुए–क्षत्रिय कहलाने लगे। जिन्होंने गौओं से तथा कृषि कर्म के द्वारा जीविका चलाने की वृत्ति अपना ली और उसी के कारण जिनके रंग पीले पड़ गये तथा जो ब्राह्मणोचित धर्म को छोड़ बैठे, वे ही ब्राह्मण वैश्‍यभाव को प्राप्‍त हुए। जो शौच और सदाचार से भ्रष्‍ट होकर हिंसा और असत्‍य के प्रेमी हो गये, लोभवश व्याधों के समान सभी तरह के निन्ध कर्म करके जीविका चलाने लगे और इसीलिये जिनके शरीर का रंग काला पड़ गया, वे ब्राह्मण शूद्रभाव को प्राप्‍त हो गये। इन्हीं कर्मों के कारण ब्राह्मणत्व से अलग होकर वे सभी ब्राह्मण दूसरे–दूसरे वर्ण के हो गये, किंतु उनके लिये नित्यधर्मानुष्‍ठान और यज्ञकर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है। इस प्रकार ये चार वर्ण हुए, जिनके लिये ब्रह्माजी ने पहले ब्राह्मी सरस्वती (वेदवाणी) प्रकट की। परंतु लोभविशेष के कारण शूद्र अज्ञानभाव को प्राप्‍त हुए–वेदाध्‍ययन के अनधिकारी हो गये। जो ब्राह्मण वेद की आज्ञा के अधीन रहकर सारा कार्य करते, वेदमन्त्रों को स्मरण रखते और सदा व्रत एवं नियमों का पालन करते हैं, उनकी तपस्या कभी नष्‍ट नहीं होती।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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