महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 18 श्लोक 35-40
अष्टादश (18) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाराज! आप तो जितेन्द्रिय होकर नंगे रहने वाले, मूड़ मुड़ाने और जटा रखाने वाले साधुओं का गेरूआ वस्त्र, मृगचर्म एवं वल्कल वस्त्रों के द्वारा भरण-पोषण करते हुए पुण्य लोकों पर विजय प्राप्त कीजिये। ’ जो प्रतिदिन पहले गुरू के लिये अग्निहोत्रार्थ समिघा लाता है; फिर उत्तम दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ एवं दान करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा?
अर्जुन कहते हैं- महाराज! राजा जनक को इस जगत् में ’तत्वज्ञ’ कहा जाता है; किंतु वे भी मोह में पड़ गये थे। (रानी ने इस तरह समझाने पर राजा ने संन्यास का विचार छोड़ दिया । अतः) आप भी मोह के वशीभूत न होइये। यदि हम लोग सदा दान और तपस्या में तत्पर हो इसी प्रकार धर्म का अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणों से सम्पन्न रहेंगे, कामक्रोध आदि दोषों को त्याग देंगे, उत्तम दान धर्म का आश्रय ले प्रजापालन में लगे रहेंगे तथा गुरूजनों और वृद्ध पुरूषों की सेवा करते रहेंगे तो हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे। इसी प्रकार देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों को विधि पूर्वक उनका भाग अर्पण करते हुए यदि हमब्राह्मणभक्त और सत्यवादी बने रहेंगे तो हमें अभीष्ट स्थान की प्राप्ति अवश्य होगी।
« पीछे | आगे » |