महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 191 श्लोक 11-18

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एकनवत्‍यधिकशततम (191) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 11-18 का हिन्दी अनुवाद

वानप्रस्‍थों के लिये धनका संग्रह करना निषिद्ध है। ये श्रेष्‍ठ लोग प्राय: शुद्ध एवं हितकर अन्‍नमात्र के इच्छुक होकर स्‍वाध्‍याय, तीर्थयात्रा एवं देश–दर्शन के निमित्त सारी पृथ्‍वी पर घूमते–फिरते हैं। ये घर पर पधारें तो उठकर, आगे बढ़कर इनका स्‍वागत करे । इनके चरणों में मस्‍तक झुकावे, दोषदृष्टि न रखकर उनसे उत्तम वचन बोले । यथाशक्ति सुखद आसन दे, सुखद शय्यापर उन्‍हें सुलावे और उत्तम भोजन करावे ।इस प्रकार उनका पूर्ण सत्‍कार करे। यही उन श्रेष्‍ठ पुरूष के प्रतिगृहस्‍थ का कर्तव्‍य है। इस विषय में ये श्‍लोक प्रसिद्ध हैं- जिस गृहस्‍थ के दरवाजे से कोई अतिथि भिक्षा न पाने के कारण निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्‍थ को अपना पाप दे उसका पुण्‍य लेकर चला जाता है। इसके सिवा गृहस्‍थाश्रम में रहकर यज्ञ करने से देवता, श्राद्ध–तर्पण करने से पितर, वेद–शास्‍त्रों के श्रवण, अभयास और धारण से ॠषि तथा संतानोंत्‍पादन से प्रजापति प्रसन्‍न होते हैं। इस विषय में ये दों श्‍लोक प्रसिद्ध हैं- वाणी ऐसी बेालनी चाहिये, जिससे सब प्राणियों के प्रति स्‍नेह भरा हो तथा जो सुनते समय कानों को सुखद जान पडे़। दूसरों को पीड़ा देना, मारना और कटुवचन सुनाना- ये सब निन्दित कार्य हैं । किसी का अनादर करना, अहंकार दिखाना और ढोंग करना- इन दुर्गुणों की भी विशेष निंदा की गयी है। किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्‍य बोलना और मन में क्रोध न आने देना- यह सभी आश्रमवालों के लिये उपयोगी तप है। इसके सिवा इस गृहस्‍थ–आश्रम में फूलों की माला, नाना प्रकार के आभूषण, वस्‍त्र, अंगराग (तेल–उबटन), नित्‍य उपभोग की वस्‍तु, नृत्‍य, गीत, वाघ, श्रवणसुखद शब्‍द और नयनाभिराम रूप के दर्शन की भी प्राप्ति होती है । भक्ष्‍य, भोज्‍य, लैह्य, पेय और चोष्‍यरूप नाना प्रकारके भोजनसंबंधी पदार्थ खाने–पीने को भी मिलते हैं। अपने उघान में घूमने–फिरने का आन्‍नद प्राप्‍त होता है और कामसुख की भी उपलब्धि होती है। जिस पुरूष को गृहस्‍थाश्रम में सदा, धर्म, अर्थ और काम के गुणों की सिद्धि होती रहती है, वह इस लोक में सुख का अनुभव करके अंत में शिष्‍ट पुरूषों की गति को प्राप्‍त कर लेता है। जो गृहस्‍थ ब्राह्मण अपने धर्म के आचरण में तत्‍पर हो उञ्छवृत्ति से (खेत या बाजार में बिखरे हुए अनाज के एक–एक दाने को बीनकर ) जीविका चलाता है तथा काम–सुख का परित्‍याग कर देता है, उसके लिये स्‍वर्ग कोई दूर्लभ वस्‍तु नहीं है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वके अंतर्गत मोक्षधर्मपर्व में भृगु–भरद्वाजसंवादविषयक एक सौ इक्‍यानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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