महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 192 श्लोक 1-3
द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वानप्रस्थ और संयास धर्मों का वर्णन तथा हिमालय के उत्तर पार्श्व में स्थित उत्कृष्ट लोक की विलक्षणता एवं महत्ता का प्रतिपादन, भृगु–भरद्वाज–संवाद का उपसंहार
भृगुजी कहते हैं- मुने! तीसरे आश्रम वानप्रस्थका पालन करने वाले मनुष्य धर्म का अनुसरण करते हुए पवित्र तीर्थों में, नदियों के किनारे, झरनों के आसपास तथा मृग, भैंसे, सूअर, सिंह एवं जंगली हाथियों से भरे हुए एकांत वनों में तप करते हुए विचरते रहते हैं। गृहस्थों के उपभोग में आने वाले ग्रामजनोचित सुंदर वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन और विषयभोगों का परित्याग करके वे जंगल में अपने–आप होने वाले अन्न, फल, मूल तथा पत्तों का परिमित, विचित्र एवं नियत आहार करते हैं। भूमिपर ही बैठते हैं। जमीन, पत्थर, रेत, कंकरीली मिट्टी, बालू अथवा राख पर ही सोते हैं। काश, कुश, मृगचर्म और वृक्षों की छाल से बने वस्त्रों से अपना शरीर ढकते हैं। सिर के बाल, दाढी़, मूंछ, नख और रोम सदा धारण किये रहते हैं। नियत समय पर स्नान करके निश्चित काल का उल्लंघन न करते हुए बलिवैश्वदेव तथा अग्निहोत्र आदि कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। सबेरे हवन–पूजन के लिये समिधा, कुशा और फूल आदि का संग्रह करके आश्रम को झाड़–बुहार लेने के परचात् उन्हें कुछ विश्राम मिलता है । सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा का वेग सहते–सहते उनके शरीर के चमडे़ फट जाते हैं। नाना प्रकार के नियमों का पालन और सत्कर्मों का अनुष्ठान करते रहने से उनके रक्त और मांस सूख जाते हैं और शरीर की जगह चाम से ढंकी हुई हड्डियों का ढांचा मात्र रह जाता है; फिर भी धैर्य रखकर साहसपूर्वक शरीर का भार ढोते रहते हैं। जो पुरूष नियम के साथ रहकर ब्रह्मर्षियों द्वारा आचरण में लायी हुई इस वानप्रस्थ धर्म की विधि का अनुष्ठान करता हैं, वह अग्नि की भांति अपने दोषों को भस्म करके दूर्लभ लोकों को प्राप्त कर लेता है। अब सन्यासियों का आचरण बतलाया जाता है। वह इस प्रकार है- इसमें प्रवेश करने वाले पुरूष अग्निहोत्र, धन, स्त्री आदि परिवार तथा घर की सारी सामग्री का परित्याग करके भोगों और संगों के प्रति अपनी आसक्ति के बंधनों को तोड़कर सदाके प्रति घर से बाहर निकल जाते हैं। ढेले, पत्थर और सुवर्ण को समान समझते हैं। धर्म, अर्थ और कामसंबंधी प्रवृतियों में उनकी बुद्धि आसक्त नहीं होती। शत्रु , मित्र और उदासीन- सबके प्रति वे समान दृष्टि रखते हैं। स्थावर, पिण्डज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज प्राणियों के प्रति मन, वाणी और क्रियाओं द्वारा कभी द्रोह नहीं करते हैं, कुटी या मठ बनाकर नहीं रहते हैं। उन्हें चाहिये कि चारों ओर विचरते रहें तथा रात्रि में ठहरने के लिये पर्वत की गुफा, नदी का किनारा, वृक्ष की जड़, देव मंदिर, नगर अथवा गांव में चले जाया करें। नगर में पांच रात्रि और गांव में एक रात से अधिक न ठहरें। प्राणधारण के लिये अपने विशुद्ध धर्मों का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य - इन द्विजतियों के ऐसे घरों पर जाकर खडे़ हो जायं, जहां संकीर्णता न हो। बिना मांगे ही पात्र में जितनी भिक्षा आ जाय, उतनी ही स्वीकार करें। काम, क्रोध, दर्प, लोभ, मोह, कृपणता, दम्भ, निंदा, अभिमान तथा हिंसा से सर्वथा दूर रहें।
« पीछे | आगे » |