महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 195 श्लोक 1-15

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पञ्च्‍नवत्‍यधिकशततम (195) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्च्‍नवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

ध्‍यानयोग का वर्णन

भीष्‍मजी कहते हैं- कुंतीनंदन! अब मैं तुमसे ध्‍यानयोग का वर्णन करूंगा जो आलम्‍बन के भेद से चार प्रकार का होता है। जिसे जानकर महर्षिगण यहीं सनातन सिद्धि को प्राप्‍त करते है। निर्वाणस्‍वरूप मोक्ष में मन लगानेवाले ज्ञानतृप्‍त योगयुक्‍त महर्षिगण उसी उपाय का अवलम्‍बन करते हैं, जिससे ध्‍यान का भलीभांति अनुष्‍ठान हो सके। कुंतीनंदन! वे संसार के काम, क्रोध आदि दोषों से मुक्‍त तथा जन्‍मसंबंधी दोष से शून्‍य होकर परमात्‍मा के स्‍वरुप में स्थित हो जाते हैं, इसलिये पुन: इस संसार में उन्‍हें नहीं लौटना पड़ता। ध्‍यानयोग के साधकों को चाहिये कि सर्दी–गर्मी आदि द्वन्‍द्वों से रहित, नित्‍य सत्‍त्‍वगुण में स्थित, सब प्रकार के दोषों से रहित और शौच–संतोषादि नियमों में तत्‍पर रहें। जो स्‍थान असंग (सब प्रकार के भोगों के संग से शून्‍य), ध्‍यानविरोधी वस्‍तुओं से रहित तथा मन को शांति देने वाले हों, वहीं इन्द्रियों को विषयों की ओर से समेटकर काठ की भांति स्थिर भाव से बैठ जाय और मन को एकाग्र करके परमात्‍मा के ध्‍यान में लगा दे। योग को जानने वाले समर्थ पुरूष को चाहिये कि कानों के द्वारा शब्‍द न सुने, त्‍वचा से स्‍पर्श का अनुभव न करे, आंख से रूप को न देखे और जिवह् रसों को ग्रहण न करे एवं ध्‍यान के द्वारा समस्‍त सूंघने योग्‍य वस्‍तुओं को भी त्‍याग दे तथा पांचों इन्द्रियों को मथ डालने वाले इन विषयों की कभी मन से इच्‍छा न करे। तत्‍पश्‍चात् बुद्धिमान एवं विद्वान् पुरूष पांचों इन्द्रियों को मन में स्थिर करे। उसके बाद पांचों इन्द्रियों सहित चंचल मन को परमात्‍मा के ध्‍यान में एकाग्र करे। मन नाना प्रकार के विषय में विचरण करने वाला है। उसका कोई स्थिर आलम्‍बन नहीं है। पांचों ज्ञानेन्द्रियॅा उसके इधर–उधर निकलने के द्वार हैं तथा वह अत्‍यंत चंचल है। ऐसे मन को धीर योगी पुरूष पहले अपने हृदय के भीतर ध्‍यानमार्ग में एकाग्र करे। जब यह योगी इन्द्रियों सहित मन को एकाग्र कर लेता है, तभी उसके प्रारम्भिक ध्‍यान मार्ग का आरम्‍भ होता है। युधिष्ठिर! यह मैंने तुम्‍हारें निकट प्रथम ध्‍यानमार्ग का वर्णन किया है। इस प्रकार प्रयत्‍न करने से जो इन्द्रियों सहित मन कुछ देर के लिये स्थिर हो जाता है, वहीं फिर अवसर पाकर जैसे बादलों में बिजली चमक उठती है, उसी प्रकार पुन: बारंबार विषयों की ओर जाने के लिये चंचल हो उठता है। जैसे पत्तेपर पड़ी हुई पानी की बूंद सब ओर से हिलती रहती है, उसी प्रकार ध्‍यान मार्ग में स्थित साधक का मन भी प्रारम्‍भ में चंचल होता रहता है। एकाग्र करने पर कुछ देर तो वह ध्‍यान में स्थित रहता है; परंतु फिर नाड़ी मार्ग में पहुंचकर भ्रांत–सा होकर वायु के समान चंचल हो उठता है। ध्‍यान योग को जानने वाला साधक ऐसे विक्षेप के समय खेद या क्‍लेश का अनुभव न करे; अपितु आलस्‍य और मात्‍सर्यका त्‍याग करके ध्‍यान के द्वारा मन को पुन: एकाग्र करने का प्रयत्‍न करे। योगी जब ध्‍यान का आरम्‍भ करता है, तब पहले उसके मन में ध्‍यान विषयक विचार, विवेक और वितर्क आदि प्रकट होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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