महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 195 श्लोक 16-22
पञ्च्नवत्यधिकशततम (195) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
ध्यान के समय मन में कितना ही क्लेश क्यों न हो, साधक को उससे ऊबना नहीं चाहिये; बल्कि और भी तत्परता के साथ मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करना चाहिये। ध्यान योगी मुनि को सर्वथा अपने कल्याण का ही प्रयत्न करना चाहिये। जैसे धूलि, भस्म और सूखे गोबर के चूर्ण की अलग–अलग इगट्ठी की हुई ढेरियों पर जल छिड़का जाय तो वे सहसा जल से भीगकर इतनी तरल नहीं हो सकतीं कि उनके द्वारा कोई आवश्यक कार्य किया जा सके; क्योंकि बार–बार भिगोये बिना वह सूखा चूर्ण थोड़ा–सा भीगता है, पूरा नहीं भीगता; परंतु उसको यदि बार–बार जल देकर क्रम से भिगोया जाय तो धीरे–धीरे वह सब गीला हो जाता है, उसी प्रकार योगी विषयों की ओर बिखरी हुई इन्द्रियों को धीरे–धीरे विषयों की ओर से समेटे और चित्त को ध्यान के अभ्यास से क्रमश: स्नेहयुक्त बनावे। ऐसा करने पर वह चित्त भलीभांति शांत हो जाता है। भरतनंदन! ध्यानयोगी पुरूष स्वयं ही मन और पांचों इन्द्रियों को पहले ध्यानमार्ग में स्थापित करके नित्य किये हुए योगाभ्यास के बल से शांति प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मनोनिग्रहपूर्वक ध्यान करने वाले योगी को जो दिव्य सुख प्राप्त होता है, वह मनुष्य को किसी दूसरे पुरूषार्थ से या दैवयोग से भी नहीं मिल सकता। उस ध्यान जनित सुख से सम्पन्न होकर योगी उस ध्यानयोग में अधिकाधिक अनुरक्त होता जाता है। इस प्रकार योगीलोग दु:ख-शोक से रहित निर्वाण (मोक्ष) पद को प्राप्त हो जाते हैं।
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