महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 15-25
अष्टादशाधिकद्विशततम (218) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उन्हीं के शिष्य पंचशिख थे, जो मानवी स्त्री के दूध से पले थे । कपिला नामवाली कोई कुटुम्बिनी ब्राह्राणी थी । उसी स्त्री के पुत्रभाव को प्राप्त होकर वे उसके स्तनों का दूध पीते थे; अत: कपिला का पुत्र कहलाने के कारण कापिलेय नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई । उन्होंने नैष्ठिक (ब्रह्रा में निष्ठा रखनेवाली) बुद्धि प्राप्त की थी। कापिलेय के जन्म का यह वृतान्त मुझे भगवान ने बताया था । उनके कपिलापुत्र कहलाने और सर्वज्ञ होने का यही परम उत्तम वृतान्त है। धर्मज्ञ पंचशिख ने उत्म ज्ञान प्राप्त किया था । वे राजा जनक को सौ आचार्यो पर समानभाव से अनुरक्त जान उनके दरबार में गये और वहॉ जाकर उन्होंने अपने युक्तियुक्त वचनों द्वारा उन सब आचार्यो को मोहित कर दिया। उस समय महाराज जनक कपिलानन्दन पंचशिख का ज्ञान देखकर उनके प्रति आकृष्ट हो गये और अपने सौ आचार्यो को छोड़कर उन्हीं के पीछे चलने लगे। तब मुनिवर पंचशिख ने राजा को धर्मानुसार चरणों में पड़ा देख उन्हें योग्य अधिकारी मानकर परम मोक्ष का उपदेश दिया, जिसका सांख्यशास्त्र में वर्णन है। उन्होंने ‘जातिनिर्वेद’[१] का वर्णन करके ‘कर्मनिर्वेद’[२] का उपदेश दिया । तत्पश्चात् ‘सर्वनिर्वेद’[३] की बात बतायी। उन्होने कहा- ‘जिसके लिये धर्म का आचरण किया जाता है, जो कर्मो के फल का उदय होने पर प्राप्त होता है, वह इहलोक या परलोक का भोग नश्वर है । उस पर आस्था करना उचित नहीं । वह मोहरूप, चंचल और अस्थिर है’। कुछ नास्तिक ऐसा करते हैं कि देहरूपी आत्मा का विनाश प्रत्यक्ष देखा जा रहा है । सम्पूर्ण लोक इसका साक्षी है । फिर भी यदि कोई शास्त्रप्रमाण की ओट देह से भिन्न आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन करता है तो वह परास्त है; क्योंकि उसका कथन लोकानुभव के विरूद्ध है। आत्मा के स्वरूपभूत शरीर का अभाव होना ही उसकी मृत्यु है । इस दृष्टि से दु:ख, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकार के रोग ये सभी आत्मा की मृत्यु ही हैं (क्योंकि इनके द्वारा शरीर का आंशिक विनाश होता रहता है) फिर भी जो लोग आत्मा को देह से भिन्न मानते है, उनकी यह मान्यता बहुत ही असंगत है। यदि ऐसी वस्तु का भी अस्तित्व मान लिया जाय, जो लोक में सम्भव नहीं है अर्थात् यदि शास्त्र के आधार पर यह स्वीकार कर लिया जाय कि शरीर से िभन्न कोई अजर-अमर आत्मा है, जो स्वर्गादि लोकों में दिव्य सुख भोगता है, तब तो बन्दीजन जो राजा को अजर-अमर कहते हैं, उनकी यह बात भी ठीक माननी पड़ेगी । (सांराश यह है कि जैसे बन्दीजन आशीर्वाद में उपचारत: राजाको अजर-अमर कहतें हैं, उसी प्रकार यह शास्त्र का वचन भी औपचारिक ही है । नीरोग शरीर को ही अजर-अमर और यहॉ के प्रत्यक्ष सुख-भोग को ही स्वर्गीय सुख कहा गया हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जन्म के समय गर्भवास आदि के कारण जो कष्ट होता है, उसपर विचार करके शरीर से वैराग्य होना ‘जातिनिर्वेद’ है ।
- ↑ कर्मजनित क्लेश-नाना योनियों की प्राप्ति एवं नरकादि यातना का विचार करके पाप तथा काम्य कर्मो से विरत होना ‘कर्मनिर्वेद’ है ।
- ↑ इस जगत् की छोटी-से-छोटी वस्तुओं से लेकर ब्रह्रालोक तक के भोगो की क्षणभंगुरता और दु:खरूपता का विचार करके सब और से विरक्त होना ‘सर्वनिर्वेद’ कहलाता है ।