महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 26-29
अष्टादशाधिकद्विशततम (218) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
यदि आत्मा है या नही – यह संशय उपस्थित होनेपर अनुमान से उसके अस्तित्व का साधन किया जाय तो इसके लिये कोई ऐसा ज्ञापक हेतु नहीं उपलब्ध होता, जो कहीं दोषयुक्त न होता हो; फिर किस अनुमान का आश्रय लेकर लोकव्यवहार का निश्चय किया जा सकता है। अनुमान और आगम इन दोनों प्रमाणों का मूल प्रत्यक्ष प्रमाण है । आगम या अनुमान यदि प्रत्यक्ष अनुभव के विरूद्ध है तो वह कुछ भी नहीं है – उसकी प्रामाणिकता नहीं स्वीकार की जा सकती। जहॉ-कहीं भी ईश्वर, अदृष्ट अथवा नित्य आत्मा की सिद्धि के लिये अनुमान किया जाता है, वहॉ साध्य–साधन के लिये हुई भावना भी व्यर्थ है, अत: नास्तिकों के मत में जीवात्मा की शरीर से भिन्न कोई सत्ता नहीं है – यह बात स्थिर हुई। जैसे वटवृक्ष के बीज में पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा त्वचा आदि छिपे होते हैं, जैसे गाय के द्वारा खायी हुई घास में से घी, दूध आदि प्रकट होते हैं तथा जिस प्रकार अनेक औषध द्रव्यों का पाक एवं अधिवासन करने स उसमें नशा पैदा करनेवाली शक्तिआ जाती है, उसी प्रकारवीर्य से शरीरआदि के साथ चेतनता भी प्रकट होती है । इसके सिवा जाति, स्मृति, अयस्कान्तमणि, यूर्यकान्तमणि और बड़वालन के द्वारा समुद्र के जल का पान आदि दृष्टान्तों से भी देहातिरिक्त चैतन्य की सिद्धि नहीं होती[१]। (इस नास्तिक मत का खण्डन इस प्रकार समझना चाहिये) मरे हुए शरीर में जोचेतनाता का अभाव देखा जाता है, वही देहातिरिक्त आत्मा के अस्तित्व में प्रमाण है (यदि चेतनता देह का ही धर्म हो तो मृतक शरीर में भी उसकी उपलब्धि होनी चाहिये; परंतु मृत्यु के पश्चात् कुछ कालतक शरीर तो रहता है, पर उसमे चेतनता नहीं रहती; अत: यह सिद्ध हो जाता है कि चेतन आत्मा शरीर से भिन्न है) । नास्तिक भी रोग आदि की निवृत्ति के लिये मन्त्र,जप तथा तान्त्रिक पद्धति से देवता आदि की आराधना करते हैं । (वह देवता क्या है ? यदि पांचभौतिक है तो घट आदि की भाँति उसका दर्शन होना चाहिये और यदि वह भौतिक पदार्थों से भिन्न है तो चेतन की सत्ता स्वत: सिद्ध हो गयी; अत: देह से भिन्न आत्मा है, यह प्रत्यक्ष अनुभव के विरूद्ध जान पडता है)।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जाति कहते है जन्म को । जैसे गुड़ या महुवे आदि से अनेक द्रव्यों के संयोग द्वाराजो मद्य तैयार किया जाता है, उसमें उपादान की अपेक्षा विलक्षण मादकशक्ति का जन्म हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु – इन चार द्रव्यों के संयोग से इस शरीर में ही जीव चैतन्य प्रकट हो जाता है । जैसे जड मन से अजड स्मृति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार जड शरीर से चेतन जीव की उत्पत्ति हो जाती है । जैसे अयस्कान्तमणि (चुम्बक) जड होकर भी लोह को खींच लेती है, उसी प्रकार जड शरीर भी इन्द्रियों का संचालन और नियन्त्रण कर लेता है; अत: आत्मा उससे भिन्न नहीं है । जैसे सूर्यकान्तमणि शीतल होकर भी सूर्य की किरणों के संयोग से आग प्रकट करने लगती है, उसी प्रकार वीर्य शीतल होकर भी रस और रक्त के संयोग से जठरानल का अविष्कार करता है और जैसे जल से उत्पन्न हुआ बडवानल जल को ही भक्षण करता है, उसी प्रकार वीर्य से उत्पन्न हुआ यह शरीर स्वयं भी वीर्य का आधान एवं धारण करता है ।अत: शरीर से भिन्न आत्मा की सत्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं हैं।