महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 219 श्लोक 1-15

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एकोनविंशत्यधिकद्विशततम (219) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

पंच‍शिख के द्वारा मोक्ष तत्‍व का विवेचन एवं भगवान विष्‍णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके लिये वरदान

भीष्‍म जी कहते हैं – राजन् ! महर्षि पंचि‍शख के इस प्रकार उपदेश देनेपर जनदेव जनक ने पुन: उनसे मृत्‍यु के पश्‍चात् आत्‍मा की सत्‍ता या विनाश के विषय में प्रश्‍न किया। जनक ने पूछा- भगवन् ! यदि मृत्‍यु के पश्‍चात् किसी की कोई विशेष संज्ञा नहीं रह जाती तो उस स्थिति में अज्ञान अथवा ज्ञान क्‍या करेगा ? द्विजश्रेष्‍ठ ! देखिये, मनुष्‍य की मृत्‍यु के साथ-साथ उसका सारा साधन नष्‍ट हो जाता है; फिर वह पहले से सावधान हो या असावधा, क्‍या विशेष लाभ उठा सकेगा ? मृत्‍यु होने के पश्‍चात् जीवात्‍मा विनाशशील पंचमहाभूतों से कोई संसर्ग रहता है या नहीं ? यदि रहता है तो किसलिये रहता हैं ? इस विषय में यथार्थरूप से क्‍या निश्‍चय किया जा सकता हैं ? भीष्‍मजी कहते हैं- राजन् ! राजा जनक की बुद्धि को अज्ञानान्‍धकार से आच्‍छादित तथा आत्‍मा के नाश की सम्‍भावना पंचशिख उन्‍हें मधुर वचनों द्वारा शान्‍त करते हुए-से-बोले। ‘राजन् ! मृत्‍यु के पश्‍चात् आत्‍मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता हैं । यह जो प्रत्‍यक्ष दिखायी देनेवाला संघात है, यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूहमात्र है । यद्यपि ये सब पृथक-पृथक हैं तो भी एक-दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्‍त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्‍वी – ये पॉच धातु हैं । ये स्‍वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्‍वी – इन पॉच तत्‍वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्‍मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण) – इनका समुदाय समस्‍त कर्मो का संग्राहकगण है; क्‍योंकि इन्‍हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्‍वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकार और धातु प्रकट हुए हैं। श्रवण, त्‍वचा, जिह्रवा, नेत्र और नासिका – ये पॉच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । शब्‍द आदि गुण चित्‍त से संयुक्‍त होकर इन इन्द्रियों के विषय होते हैं। विज्ञानयुक्‍त चेतना (विषयों की उपादेयता, हेयता और उपेक्षणीयता के कारण) निश्‍चय ही तीन प्रकार की होती है । उसे अदु:खा, असुखा और सुख-दु:खा कहते हैं। शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस, गन्‍ध तथा मूर्त द्रव्‍य – ये छ: गुण जीव की मृत्‍यु के पहले तक इन्द्रियजन्‍य ज्ञान के साधक होते हैं (इनके साथ इन्द्रियों का संयोग होनेपर ही भिन्‍न-भिन्‍न विषयों का ज्ञान होता है )। श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्‍याग) करने से सम्‍पूर्ण तत्‍वों के यथार्थ निश्‍चयरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है । उस तत्‍वनिश्‍चय को अत्‍यन्‍त निर्मल उत्‍तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्रापद कहते हैं। जो लोग गुणों के संघातरूप इस शरीर को ही आत्‍मा समझ लेते हैं, उन्‍हें मिथ्‍या ज्ञानके कारण अनन्‍त दु:खों की प्राप्ति होती है और उनकी परम्‍परा कभी शान्‍त नहीं होती। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्‍य प्रपंच अनात्‍मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, फिर उन्‍हें दु:ख परम्‍परा कैसे प्राप्‍त हो; उन दु:खों के लिये आधार ही क्‍या रह जाता है ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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