महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 261 श्लोक 19-37
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एकषष्टयधिकद्विशततम (261) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
एक समय की बात है, वे महातपस्वी जाजलि निराहार रहकर वायु-भक्षण करते हुए काष्ठ की भॉति खडे़ हो गये, उस समय उनके चित्त में तनिक भी व्यग्रता नहीं थी और वे क्षणभर के िलये भी कभी विचलित नहीं होते थे। भरतनन्दन ! वे चेष्टाशून्य होनेके कारण किसी ठॅूठे पेड़ के समान जान पड़ते थे ।राजन् ! उस समय उनके सिर पर गौरेया पक्षीके एक जोडे़ ने अपनेरहनेकेिलये एक घोंसलाबना लिया। वे विप्रर्षि बडे़ दयालुथे, इसलियेउन्होंने उन दोनोंपक्षियों को तिनके से अपनी जटाओं में घोंसला बनाते देखकरभी उनकीउपेक्षा कर दी- उन्हें हटाने या उड़ाने की कोई चेष्टा नहीं की।जब वे महात्मा ठॅूठे काठ के समान होकरजराभीहिले-डुले नहीं, तब अच्छी तरह विश्वास जम जाने के कारण वे दोनों पक्षीवहॉ बडे़ सुख से रहनेलगे। राजन् ! धीरे-धीरे वर्षा ऋतु बीत गयी और शरत्काल उपस्थित हुआ । उस समय काम से मोहित होकर उन गौरेयों ने संतानोत्पादन की िवधि से परस्पर समागम कियाऔर विश्वास के कारण महर्षि के िसरपर ही अण्डे दिये । कठोर व्रतकापालन करनेवालेउन तेजस्वीब्राह्राण को यह मालूम हो गया कि पक्षियों ने मेरी जटाओं में अण्डे दिये हैं । इस बात को जानकर भी महातेजस्वी जाजलि विचलित नहीं हुए । उनका मन सदा धर्म मे लगा रहता था; अत: उन्हें अधर्म का कार्यपसंद नहीं था। प्रभो ! चिडि़यों के वे जोडे़ प्रतिदिनचारा चुगने केलियेजाते और िफर लौटकर उनकेमस्तकपरही बसेरा लेतेथे,वहॉ उन्हेंबड़ा आश्वासनमिलता था और वे बहुत प्रसन्न रहतेथे। अण्डों के पुष्ट होनेपरउन्हें फोड़कर बच्चे बाहरनिकले और वहीं पलकर बडे़ होने लगे, तथापि जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं। दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करनेवाले वे एकाग्रचित्त धर्मात्मा मुनिउन पक्षियों के अण्डों की रक्षा करते हुए पूर्ववत् निश्चेष्ट भाव से खडे़ रहे। तदनन्तर कुछ समय बीतने पर उन सब बच्चों के पर निकल आये, मुनि को यह बात मालूम हो गयी कि चिडि़यों के इन बच्चों के पंख निकल आये हैं। संयमपूर्वक व्रत के पालन में तत्पर रहनेवाले, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ जाजलि किसी दिन वहॉ उन पंखधारीबच्चो को उड़तेदेख बडे़ प्रसन्न हुए तथा अपने बच्चों को बड़ा हुआ देख वे दोनों पक्षी भी बडे़ आनन्द का अनुभव करने लगे और अपनी संतानों के साथ निर्भय होकर वहीं रहने लगे। बच्चों के पंख हो गये थे, इसलिये वे दिन में चारा चुगने के लिये उड़कर निकल जातेऔर प्रतिदिन सायंकाल फिर वहीं लौट आते थे । ब्राह्राण प्रवर जाजलि उन पक्षियों को इस प्रकार आते-जाते देखते, परंतु हिलते-डुलते नहीं थे। किसी समय माता-पिता उनको छोड़कर उड़ गये । अब वे बच्चे कभी आकर फिर चले जाते और जाकर फिर चले आते थे, इस प्रकार वे सदा आने-जाने लगे ।उस समयतक जाजलिमुनि हिले-डुले नहीं। नरेश्वर ! अबवे पक्षी दिनभर चरने के लिये चले जाते और शाम को पुन: बसेरा लेने के लियेवहीं आते थे। कभी-कभी वे विहंगम उड़कर पॉच-पॉच दिनतक बाहर ही रह जाते और छठे दिन वहॉ लौटते थे, तब तक भी जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं। फिर क्रमश: वे सब पक्षी बहुत िदनों के लिये जानेऔर आने लगे, अब वे हृष्ट-पुष्ट और बलवान्हो गये थे ।अत: बाहर निकल जानेपर जल्दी नहीं लौटते थे। राजन् ! एक समय वे आकाशचारीपक्षी उड़ जाने के बाद एक मास तक लौटकर नहीं आये, तब जाजलि मुनि वहॉ से अन्यत्र चल दिये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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