महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 261 श्लोक 38-51
एकषष्टयधिकद्विशततम (261) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उन पक्षियों केअदृश्य हो जानेपरजाजलि को बड़ा विस्मय हुआ, वे मन ही मन यह मानने लगे कि मैं सिद्ध हो गया, फिर तो उनके भीतर अहंकार आ गया। नियमपूर्वक व्रत का पालन करनेवाले वे सम्भावितात्मा महर्षि उन पक्षियों को इस प्रकार गया हुआ देख अपनी सिद्धि की सम्भावना करके मन ही मन बडे़ प्रसन्न हुए। फिर नदी के तट पर जाकर उन महातपस्वी मुनि ने स्नान किया और संध्या तर्पण के पश्चात् अग्निहोत्र के द्वारा अग्निदेव को तृप्त करके उगते हुए सूर्य का उपस्थान किया। जप करनेवालों में श्रेष्ठ जाजलि अपने मस्तकपर चिडि़यों के पैदा होनेऔरबढ़ने आदि की बातें याद करकेअपने को महान् धर्मात्मा समझने लगे और आकाश में मानो ताल ठोंकते हुए स्पष्ट वाणी में बोले, मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया। इतने ही में आकाशवाणी[१] हुई –‘जाजले ! तुम धर्म में तुलाधार के समान नहीं हो, काशीपरी में महाज्ञानी तुलाधार वैश्य प्रतिष्ठित हैं । विप्रवर ! वे तुलाधार भी ऐसी बात नहीं कह सकते, जैसी तुम कह रहे हो।‘ जाजलि ने उस आकाशवाणी को सुना। राजन् ! इससेवे अमर्ष के वशीभूत हो गये और वे तुलाधार को देखने के लिये पृथ्वी पर विचरने लगे । जहॉ संध्या होती, वही वे मुनि टिक जाते थे। इस प्रकार दीर्घकाल के पश्चात् वे वाराणसीपुरी में जा पहॅुचे, वहॉ उन्होने तुलाधार को सौदा बेचते देखा। विविध पदार्थो के क्रय-विक्रय से जीवन-निर्वाह करनेवाले तुलाधार भी ब्राह्राण को आते देख तुरंत ही उठकर खडे़ हो गये और बडे़ हर्ष के साथ आगे बढ़कर उन्होने ब्राह्राण का स्वागत-सत्कार किया। तुलाधार ने कहा-ब्रह्रान् ! आप मेरेपास आ रहे हैं, यह बात मुझे पहले ही मालूम हो गयी थी, इसमे संशय नही है । द्विजश्रेष्ठ ! अब जो कुछ मैं कहता हॅू, उसे ध्यान देकर सुनिये। आपने सागर केतटपर सजल प्रदेश मे रहकर बड़ी भारी तपस्या की है, परंतु पहले कभी किसी तरह आपको यह बोध नहीं हुआ था कि मैं बड़ा धर्मवान हॅू। विप्रवर ! जब आप तपस्या से सिद्ध हो गये, तब पक्षियों ने शीघ्र ही आपके सिरपर अण्डे दिये और उनसे बच्चे पैदा हुए, आपनेउन सबकी भलीभॉति रक्षा की। ब्रह्रान् ! जब उनके पर निकल आये और वे चारा चुगने के लिये उड़कर इधर-उधर चले गये, तब उन पक्षियों के पालनजनित धर्म को आप बहुतबड़ा मानने लगे। द्विजश्रेष्ठ ! उसी समय मेरे विषय में आकाशवाणी हुई, जिसे आने सुना और सुनते ही अमर्ष के वशीभूत होकर आप यहॉ मेरे पास चले आये । विप्रवर ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसी अध्याय में पहले अदृश्य भूत-पिशाचों के द्वारा उपर्युक्त वचन कहा गया है। यहॉ उसी को आकाशवाणी बतला रहे हैं।