महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 16-29

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षट्षष्‍टयधिकद्विशततम (266) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्षष्‍टयधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 16-29 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

‘जा‍तकर्म-संस्‍कार और उपनयन-संस्‍कार के समय पिता ने जो आशीर्वाद दिया है, वह पिता के गौरव का निश्‍चय कराने में पर्याप्‍त एवं सुदृढ प्रमाण है। पिता भरण-पोषण करने तथा शिक्षा देने के कारण पुत्र का प्रधान गुरू है। वह परम धर्म का साक्षात् स्‍वरूप है। पिता जो कुछ आज्ञा दे, उसे ही धर्म समझकर स्‍वीकार करना चाहिये। वेदों में भी उसी को धर्म निश्चित किया गया है। ‘पुत्र पिता की सम्‍पूर्ण प्रीतिरूप है और पिता पुत्र का सर्वस्‍व है। केवल पिता ही पुत्र को देह आदि सम्‍पूर्ण देने योग्‍य वस्‍तुओं को देता है। इ‍सलिये पिता के आदेश का पालन करना चाहिये। उस पर कभी कोई विचार नहीं करना चा‍हिए। जो पिता की आज्ञा का पालन करने वाला है, उसके पातक भी नष्‍ट हो जाते हैं। ‘पुत्र के भोग्‍य (वस्‍त्र आदि ), भोज्‍य (अन्‍न आदि ), प्रवचन (वेदाध्‍ययन) , सम्‍पूर्ण लोक-व्‍यवहार की शिक्षा तथा गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्‍तोन्‍नयन आदि समस्‍त संस्‍कारों के सम्‍पादन में पिता ही प्रभु है। ‘इसलिये पिता धर्म है, पिता स्‍वर्ग है और पिता ही सबसे बड़ी तपस्‍या है। पिता के प्रसन्‍न होने पर सम्‍पूर्ण देवता प्रसन्‍न हो जाते हैं। ‘ पिता पुत्र से यदि कुछ कठोर बातें कह देता है तो वे आशीर्वाद बनकर उसे अपना लेती हैं और पिता यदि पुत्र का अभिन्‍नदन करता है- मीठे वचन बोलकर उसके प्रति प्‍यार और आदर दिखाता है तो इससे पुत्र के सम्‍पूर्ण पापों का प्रायश्चित हो जाता है। ‘फूल डंठल से अलग हो जाता है, फल वृक्ष से अलग हो जाता है; परंतु पिता कितने ही कष्‍ट में क्‍यों न हो, लाड़-प्‍यार से पाले हुए अपने पुत्र को कभी नहीं छोड़ता है अर्थात पुत्र कभी पिता से अलग नहीं हो सकता। ’पुत्र के निकट पिता का कितना गौरव होना चाहिये, इस बात पर पहले विचार किया है। विचार करने से यह बात स्‍पष्‍ट हो गयी कि पिता पुत्र के लिये कोई छोटा-मोटा आश्रय नहीं है। अब मैं माता के विषय में सोचता हूँ। ‘मेरे लिये जो यह पाञ्चभौतिक मनुष्‍य शरीर मिला है, इसके उत्‍पन्‍न होने में मेंरी माता ही मुख्‍य हेतु है। जैसे अग्नि के प्रकट होने का मुख्‍य आधार अरणीकाष्‍ठ है। ‘माता मनुष्‍यों के शरीररूपी अग्नि को प्रकट करने वाली अरणी है। संसार के समस्‍त आर्त प्राणियों को सुख और सान्‍त्‍वना प्रदान करने वाली माता ही है। जब तक माता जीवित रहती है, मनुष्‍य अपने को सनाथ समझता है और उसके न रहने पर वह अनाथ हो जाता है। ‘माता के रहते मनुष्‍य को कभी चिंता नहीं होती, बुढापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता है। जो अपनी मां को पुकारता हुआ घर में जाता है, वह निर्धन होने पर भी मानो माता अन्‍नपूर्णा के पास चला जाता है। ‘पुत्र और पौत्रों से सम्‍पन्‍न होने पर भी जो अपनी माता के आश्रय में रहता है, वह सौ वर्ष की अवस्‍था के बाद भी उसके पास दो वर्ष के बच्‍चे के समान आचरण करता है। ‘पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हष्‍टपुष्‍ट, माता उसका पालन करती ही है। माता के सिवा दूसरा कोई विधिपूर्वक पुत्र का पालन-पोषण नहीं कर सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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