महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 30-43
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षट्षष्टयधिकद्विशततम (266) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘जब माता से विछोह हो जाता है, उसी समय मनुष्य अपने को बूढा समझने लगता है, दुखी हो जाता है और उसके लिये सारा संसार सूना प्रतीत होने लगता है। ‘माता के समान दूसरी कोई छाया नहीं है अर्थात माता की छत्रछाया में जो सुख है, वह कहीं नहीं है। माता के तुल्य दूसरा सहारा नहीं है, माता के सदृश अन्य कोई रक्षक नहीं है तथा बच्चे के लिए मां के समान दूसरी कोई प्रिय वस्तु नहीं है। ‘वह गर्भाशय में धारणकरने के कारण धात्री, जन्म देने के कारण जननी, शिशुका अंगवर्धन (पालन-पोषण ) करने से अम्बा तथा वीर-संतान का प्रसव करने के कारण वीरसू कही गयी है। ‘वह शिशु की शुश्रूषा करके शुश्रू नाम धारण करती है। माता अपना निकटतम शरीर है। जिसका मस्तिष्क विचार शून्य नहीं हो गया है, ऐसा कोर्इ सचेतन मनुष्य कभी अपनी माता की हत्या नहीं कर सकता। ‘पति और पत्नि मैथुनकाल में सुयोग्य पुत्र होने के लिये जो अभिलाषा करते हैं तथापि वास्तव में वह अभिलाषा माता में ही प्रतिष्ठित होती है। ‘पुत्र का गोत्र क्या है ? यह माता जानती है। वह किस पिता का पुत्र है ? यह भी माता ही जानती है। माता बालक को अपने गर्भ में धारण करती है, इसलिये उसी का उस पर अधिक स्नेह और प्रेम होता है। पिता का तो अपनी संतान पर प्रभुत्वमात्र है। ‘जब स्वयं ही पत्नि का पाणिग्रहण करके साथ-साथ धर्माचरण करने की प्रतिज्ञा लेकर भी पुरूष परायी स्त्रियों के पास जायेंगे (और उन पर बलात्कार करेंगे), तब इसके लिये स्त्रियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता । ‘पुरूष अपनी स्त्री का भरण-पोषण करने से भर्ता और पालन करने के कारण पति कहलाता है। इन गुणों के न रहने पर वह न तो भर्ता है और न पति ही कहलाने योग्य है। ‘वास्तव में स्त्री का कोई अपराध नहीं होता है, पुरूष ही अपराध करता है। व्यभिचार का महान पाप पुरूष ही करता है, इसलिये वही अपराधी है। ‘स्त्री के लिये पति ही परम आदरणीय है, वही उसका सबसे बड़ा देवता माना गया है। मेरी माता ने ऐसे पुरूष को आत्मसमर्पण किया है, जो शरीर से, वेशभूषा से पिताजी के समान ही था। ‘ऐसे अवसरों पर स्त्रियों का अपराध नहीं होता, पुरूष ही अपराधी होता है। सभी कार्यों में अबला होने के कारण स्त्रियों को अपराध के लिये विवश कर दिया जाता है, अत: पराधीन होने के कारण वे अपराधिनी नहीं हैं। ‘स्त्री के द्वारा मैथुनजनित सुख से तृप्त होने के लिये कोई संकेत न करने पर भी उसके काम को उद्दीप्त करने वाले पुरूष को स्पष्ट ही अधर्म की प्राप्ति होती है। इसमें संशय नहीं है। ‘इस प्रकार विचार करने से एक तो वह नारी होने के कारण ही अवध्य है, दूसरे मेरी पूजनीया माता है। माता का गौरव पिता से भी बढकर है, जिसमें मेरी मां प्रतिष्ठित है। नासमझ पशु भी स्त्री और माता को अवध्य मानते हैं (फिर मैं समझदार मनुष्य होकर भी उसका वघ कैसे करूँ ? )। ‘मनीषी पुरूष यह जानते हैं कि पिता एक स्थान पर स्थित सम्पूर्ण देवताओं का समूह है; परंतु माता के भीतर उसके स्नेहवश समस्त मनुष्यों और देवताओं का समुदाय स्थित रहता है (अत: माता का गौरव पिता से भी अधिक है)। विलम्ब करने का स्वभाव होने के कारण चिरकारी इस प्रकार सोचता-विचारता रहा। इसी सोच-विचार में बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया । इतने में ही उसके पिता वन से लौट आये। महाज्ञानी तपोनिष्ठ मेधातिथि गौतम उस समय पत्नि के वध के अनौचित्य पर विचार करके अधिक संतप्त हो गये। वे दु:ख से आँसू बहाते हुए वेदाध्ययन और धैर्य के प्रभाव से किसी तरह अपने को सँभाले रहे और पश्चाताप करते हुए मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे- ‘अहो ! त्रिभुवन का स्वामी इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके मेरे आश्रम पर आया था। मैंने अतिथि सत्कार के गृहस्थोचित व्रत का आश्रय लेकर उसे मीठे वचनों द्वारा सान्तवना दी, उसका स्वागत-सत्कार किया और यथोचित रूप से अर्ध्य-पाद्य आदि निवेदन करके मैंने स्वयं ही उसकी विधिवत पूजा की।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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