महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 267 श्लोक 13-24

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सप्‍तषष्‍टयधिकद्विशततम (267) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तषष्‍टयधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 13-24 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

अपराधी को उसका सर्वस्‍व छीन लेने का भय दिखाया जाय अथवा उसे कैद कर लिया जाय या उसके किसी अंग को भंग करके उसे कुरूप बना दिया जाय; पंरतु प्राणदण्‍ड देकर उनके कुटुम्बियों को क्‍लेश पहुँचाना उचित नहीं है। इसी तरह यदि वे पुरोहित ब्राह्मण की शरण में जा चुके हों तो भी राजा उन्‍हें दण्‍ड न दे। यदि शरण चाहने वाले डाकू या दुष्‍ट पुरूष पुरोहित की शरण में चले जायँ और यह प्रतिज्ञा करें कि ‘ब्रह्मन ! अब हम फिर ऐसा पाप नहीं करेंगे' तो उन्‍हें छोड़ देना चाहिये। यह ब्रह्माजी का उपदेश है। सिर मुड़ाकर दण्‍ड और मृगचर्म धारणकरने वाला संन्‍यासी ब्राह्मण भी यदि पाप करे तो दण्ड पाने का अधिकारी है। यदि मनुष्‍य बार-बार अपराध करे, तो प्रमुख विचारकगण उसके अपराध के लिये गुरूत्तर दण्‍ड प्रदान करें। उस अवस्‍था में पहले बार के अपराध की भांति वे बिना दण्‍ड दिये छोड़ देने के योग्‍य नहीं रह जाते हैं। द्युमत्‍सेन ने कहा – बेटा ! जहां-जहां भी प्रजा को धर्म की मर्यादा के भीतर नियन्त्रित करके रखा जा सके वहां-वहां वैसा करना धर्म ही बताया जाता है। जब तक कि धर्म का उल्‍लंघन नहीं किया जाता (तब तक ही वहां ऐसी व्‍यवस्‍था कर लेनी चाहिये)। यदि धर्म का उल्‍लंघन करने पर भी लुटेरों का वध न किया जाय तो उनसे सारी प्रजा को कष्‍ट पहुँच सकता है। पहले और बहुत पहले के लोगों पर शासन करना सुगम था, क्‍योंकि उनका स्‍वभाव कोमल था, सत्‍य में उनकी विशेष रूचि थी और द्रोह तथा क्रोध की मात्रा उनमें बहुत कम थी। पहले अपराधी को धिक्‍कार देना ही बड़ा भारी दण्‍ड समझा जाता था। तदनन्‍तर अपराधकी मात्रा बढने पर वाग्‍दण्‍ड का प्रचार हुआ – अपराधी को कटुवचन सुनाकर छोड़ दिया जाने लगा। इसके बाद आवश्‍यकता समझकर अर्थदण्‍ड भी चालू किया गया और आजकल तो वध का दण्‍ड भी प्रचलित हो गया है। बहुत-से दुष्‍टात्‍मा मनुष्‍यों को तो प्राणदण्‍ड के द्वारा भी काबू में लाना या मर्यादा के भीतर रखना असम्‍भव-सा हो रहा है। सुनने में आया है कि डाकू मनुष्‍यों, देवताओं, गन्‍धर्वों अथवा पितरों में से किसी का आत्‍मीय नही होता। इतना ही नहीं, इस संसार में कौन लुटेरा किसका है, यह प्रश्‍न ही नहीं उठ सकता। कोई डाकू किसी का नहीं होता है, यही कहना यथार्थ है। वह तो मरघट में जाकर मृत शरीर से चिन्‍हभूत वस्‍त्र आदि उतार लाता है और देवताओं की सम्‍पत्ति को भी लूट लेता है। जिनकी बुद्धि मारी गयी है, उन डाकुओं पर जो कोई विश्‍वास करता है, वह मूर्ख है। सत्‍यवान ने कहा- पिताजी! यदि आप लुटेरों का वध न करके साधुओं की रक्षा में असमर्थ हैं, अथवा उन दस्‍युओं को ही साधु बनाकर अहिंसा द्वारा उनकी प्राणरक्षा नहीं कर सकते तो भूत, वर्तमान और भविष्‍य में उनके पारमार्थिक लाभ का उद्देश्‍य सामने रखकर किसी उत्‍तम उपाय से उनका या दस्‍युवृति का अन्‍त कर दीजिये। बहुत से नरेश, लोगों की जीवन यात्रा का यथावत रूप से निर्वाह हो, इस उद्देश्‍य से बड़ी भारी तपस्‍या करते हैं। वे राजा अपने राज्‍य में चोर-डाकुओं के होने से लज्‍जा का अनुभव करते हैं। इसीलिये प्रजा को शुद्ध, सदाचारी एवं सुखी बनाने की इच्‍छा से वैसी तपस्‍या में प्रवृत होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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