महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 267 श्लोक 25-35
सप्तषष्टयधिकद्विशततम (267) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जब प्रजा में दण्ड का भय उत्पन्न किया जाता है, तब वह सत्कर्मपरायण होती है; अत: भय दिखाकर प्रजा को धर्म में लगाना ही दण्ड का उद्देश्य है, किसी का प्राण लेना नहीं। राजा लोग अपनी इच्छा से दुष्टों का वध नहीं करते है। श्रेष्ठ नरेश प्राय: सत्कर्मों और सद्व्यवहारों द्वारा ही दीर्घकाल तक प्रजा पर शासन करते हैं। इस प्रकार परम श्रेष्ठ राजा के सद्व्यवहार का सब लोग अनुसरण करते हैं। मनुष्य स्वभाव से ही सदा बड़ों के आचरणों का अनुकरण करते हैं। जो राजा स्वयं विषय भोगने के लिये इन्द्रियों का दास हो रहा है, अपने मन को काबू में नहीं रख पाता, वह यदि दूसरों को सदाचार का उपदेश देने लगे तो लोग उसकी हँसी उड़ाते हैं। यदि कोई मनुष्य दम्भ या मोह के कारण राजा के साथ किंचिन्मात्र भी कोई अनुचित बर्ताव करने लगे तो सभी उपायों से उसका दमन करना चाहिये। ऐसा करने पर वह पाप कर्म से दूर हट जाता है। जो राजा पाप की प्रवृति को रोकना चाहता हो, उसे पहले अपने मन को ही वश में करना चाहिये। फिर अपने सगे बन्धु-बान्धव भी अपराध करे तो उनको भी भारी-से-भारी दण्ड देना चाहिये। जहां पाप करने वाले नीच को महान दु:ख नहीं भेगना पड़ता है, वहां निश्चय ही पाप बढता है और धर्म का ह्रास होता है। पिताजी ! एक दयालु एवं विद्वान ब्राह्मण ने मुझे यह सब उपदेश दिया था। उस समय उसने कहा था कि ‘तात सत्यवान् ! मेरे पूर्वज पितामहों ने मुझे आश्वासन देते हुए अत्यन्त कृपापूर्वक ऐसी शिक्षा दी थी। इसलिये राजा को सत्ययुग में जब कि धर्म अपने चारों चरणों से मौजूद रहता है, पूर्वोक्त प्रथम श्रेणी के (अहिंसामय) दण्ड द्वारा ही प्रजा को वश में करना चाहिये। ‘त्रेता युग आने पर धर्म का प्रचार एक चौथाई कम हो जाता है, द्वापर में धर्म के दो ही पैर रह जाते हैं; परंतु कलियुग में तो धर्म को चतुर्थ भाग ही शेष रह जाता है। ‘इस प्रकार कलियुग उपस्थित होने पर राजा के दुर्व्यवहार से तथा उस कालविशेष का प्रभाव पड़ने से सम्पूर्ण धर्म की सोलहवीं कलामात्र शेष रह जायेगी। ‘सत्यवान ! यदि प्रथम श्रेणी के अहिंसात्मक दण्ड से धर्म और अधर्म का सम्मिश्रण होने लगे, तब दण्डनीय व्यक्ति की आयु, शक्ति और काल को ध्यान में रखते हुए राजा यथोचित दण्ड के लिये आज्ञा प्रदान करे। ’स्वायम्भुव मनु ने प्राणियों पर अनुग्रह करने के लिये धर्म का उपदेश किया है, जिससे इस जगत में वह सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले धर्म के महान फल से वंचित न रह जाय’।
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