महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 278 श्लोक 1-12

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अष्‍टसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (278) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

हारीत मुनि के द्वारा प्रतिपादित सन्यासी के स्वभाव, आचरण और धर्मौं का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! प्रकृति से परे जो परब्रह्म का अविनाशी परमधाम है, उसे कैसे स्‍वभाव, किस तरह के आचरण, कैसी विद्या और किन कर्मों में तत्‍पर रहने वाला पुरूष प्राप्‍त कर सकता है ? भीष्‍म जी ने कहा- राजन् ! जो पुरूष मोक्षधर्मों में तत्‍पर, मिताहारी और जितेन्द्रिय होता है, वह उस प्रकृति से परे परब्रह्म परमात्‍मा का जो अविनाशी परमधाम है, उसे प्राप्‍त कर लेता है । युधिष्ठिर ! पूर्वकाल में हारत मुनि ने जो ज्ञान का उपदेश किया है, इस विषय में विज्ञ पुरूष उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो। मुमुक्षु पुरूष को चाहिये कि लाभ और हानि में समान भाव रखकर मुनिवृत्ति से रहे और भोगों के उपस्थित होने पर भी उनकी आकांक्षा से रहित हो अपने घर से निकल कर सन्‍यास ग्रहण कर ले । न नेत्र से, न मने से और न वाणी से ही वह दूसरे के दोष देखे, सोचे या कहे। किसी के सामने या परोक्ष में पराये दोष की चर्चा कहीं न करे । समस्‍त प्राणियों में से किसी की भी हिंसा न करे- किसी को भी पीड़ा ने दे। सबके प्रति मित्रभाव रखकर विचरता रहे। इस नश्‍वर जीवन को लेकर किसी के साथ शत्रुता न करे । यदि कोई अपने प्रति अमर्यादित बातें कहे- निन्‍दा या कटुवचन सुनाये तो उसके उन वचनों को चुपचाप सह ले । किसी के प्रति अहंकार या घमंड न प्रकट करे। कोई क्रोध करे तो भी उससे प्रिय वचन ही बोले। यदि कोई गाली दे तो भी उसके प्रति हितकर वचन ही मुँह से निकाले । गाँव या जनसमुदाय में दायें-बायें न करे- किसी की पक्ष-विपक्ष न करे तथा भिक्षावृति को छोडकर किसी के यहाँ पहले से निमन्त्रित होकर भोजन के लिये न जाय । कोई अपने ऊपर धूल या कीचड़ फेंके तो मुमुक्षु पुरूष उससे आत्‍मरक्षा मात्र करे। बदले में स्‍वयं भी वैसा ही न करे और न मुँह से कोई अप्रिय वचन ही निकालें। सर्वदा मृदुता का बर्ताव करे। किसी के प्रति कठोरता न करे। निश्चिन्‍त रहे और बहुत बढ-बढकर बातें न बनायें । जब रसोई घर से घूआँ निकलना बंद हो जाय, अनाज-मसाला कूटने के लिये उठाया हुआ मूसल अलग रख दिया जाय, चूल्‍हे की आग ठंडी पड़ जाय, घर के लोग भोजन कर चुके हों और बर्तनों का संचार रसोई परोसी हुई थाली का इधर-उधर ले जाया जाना बंद हो जाय, उस समय संन्‍यासी मुनि को भिक्षा प्राप्‍त करने की चेष्‍टा करनी चाहिये । उसे केवल अपनी प्राणयात्रा के निर्वाह मात्र का यत्‍न करना चाहिये। भर पेट भोजन मिल जाय, इसकी इच्‍छा नहीं रखनी चाहिये। यदि भिक्षा न मिले तो उससे मन में पीड़ा का अनुभव न करे और मिल जाय तो उसके कारण वह हर्षित न हो । साधारण (लौकिक) लाभ की इच्‍छा न करे । जहाँ विशेष आदर एवं पूजा होती हो, वहाँ भोजन न करे। मुमुक्षु पुरूष को आदर-सत्‍कार के लाभ की तो निन्‍दा करनी चाहिये । भिक्षा में मिले हुए अन्‍न के दोष बताकर उनकी निन्‍दा न करे और न उसके गुण बताकर उन गुणों की प्रशंसा करे। सोने और बैठने के लिये सदा एकान्‍त का ही आदर करे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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