महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 278 श्लोक 13-22
अष्टसप्तत्यधिकद्विशततम (278) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सूने घर, वृक्ष की जड़, जंगल अथवा पर्वत की गुफा में अथवा अन्य किसी गुप्त स्थान में अज्ञात भाव से रहकर आत्म चिन्तन में ही लगा रहे । लोगों के अनुरोध या विरोध करने पर भी सदा समभाव से रहे, निश्चल एवं स्थिरचित हो जाय तथा अपने कर्मों द्वारा पुण्य एवं पाप का अनुसरण करे । सर्वदा तृप्त और संतुष्ट रहे। मुख और इन्द्रियों को प्रसन्न रखे। भय को पास न आने दे। प्रणव आदि का जप करता रहे तथा वैराग्य का आश्रय ले मौन रहे । भौतिक देह, इन्द्रिय आदि सभी वस्तुएँ नष्ट होने वाली हैं और प्राणियों के आवागमन-जन्म और मरण-बारंबार होते रहते हैं। यह सब देख और सोचकर जो सर्वत्र नि:स्पृह तथा समदर्शी हो गया है, पके(रोटी, भात आदि) और कच्चे (फल, मूल आदि) से जीवन-निर्वाह करता है, आत्मलाभ के लिये जो शान्तचित्त हो गया है तथा जो मिताहारी और जितेन्द्रिय है, वही वास्तव में संन्यासी कहलाने योग्य है । संन्यासी तपस्वी होकर वाणी, मन, क्रोध, हिंसा, उदर और उपस्थ - इनके वेगों को सहता हुआ इन्हें वश में रखे। दूसरों द्वारा की हुई निंदा उसके ह्रदय में कोई विकार न उत्पन्न करे । प्रशंसा और निन्दा - दोनों में समान भाव रखकर उदासीन ही रहना चाहिये। संन्यासाश्रम में इस प्रकार का आचरण परम पवित्र माना गया है । संन्यासी को महामनस्वी, सब प्रकार से जितेन्द्रिय, सब ओर से असंग, सौम्य, मठ और कुटिया से रहित तथा एकाग्रचित् होना चाहिये। उसे अपने पूर्व आश्रम के परिचित स्थानों में नही विचरना चाहिये । वानप्रस्थों और गृहस्थों के साथ उसे कभी संसर्ग नहीं रखना चाहिये । अपनी रूचि प्रकट किये बिना ही जो वस्तु प्राप्त हो जाय, उसी को लेने की इच्छा रखनी चाहिये तथा अभीष्ट वस्तु के मिलने पर उसके मन में हर्ष का आवेश नहीं होना चाहिये । यह सन्यासाश्रम ज्ञानियों के लिये तो मोक्षरूप है, परंतु अज्ञानियों के लिये श्रमरूप ही है। हारीत मुनि ने विद्वानों के लिये इस सम्पूर्ण धर्म को मोक्ष का विमान बताया है । जो पुरूष सबको अभय-दान देकर घर से निकल जाता है, उसे तेजोमय लोकों की प्राप्ति होती है तथा वह अनन्त परमात्मपद को प्राप्त करने में समर्थ होता है ।
इस प्रकार श्रीहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में हारीत गीता विषयक दो सौ अठहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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