महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 115-133
चतुरशीत्यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
आप जगत को उन्माद (मोह) – में डालने वाले हैं। आपके मस्तक पर गंगा जी की सैकड़ों लहरें और भँवरें उठती रहती हैं। आपके केश सदा गंगाजल से भीगे रहते हैं। आप चन्द्रमा को क्षय-वृद्धि के चक्कर में डालने वाले हैं। आप ही युगों की पुनरावृति करने वाले और मेघों के प्रवर्तक हैं। आपको नमस्कार है । आप ही अन्न, अन्न के भोक्ता, अन्न का पालन करने वाले, अन्न स्त्रष्टा, पाचक, पक्वान्नभोजी, प्राणवायु तथा जठरानलरूप हैं । देवदेवेश्वर ! जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज – ये चार प्रकार के प्राणिसमूह आप ही हैं । ब्रह्मवेताओं में श्रेष्ठ ! आप ही चराचर जीवा की सृष्टि तथा संहार करने वाले हैं। ब्रह्मज्ञानी पुरूष आप ही को ब्रह्म कहते हैं । वेदवादी विद्वान आपको ही मन का परम कारण, आकाश, वायु तेज की निधि, ॠक्, साम तथा ॐकार बताते हैं । सुरश्रेष्ठ ! सामगान करने वाले वेदवेत्ता पुरूष ‘हा 3 यि, हा 3 यि, हू 3 वा, हा 3 यि, हा 3 वु, हा 3 यि’ आदि का बारंबार उच्चारण करके निरन्तर आपकी ही महिमा का गान करते हैं । यजुर्वेद और ॠग्वेद आपके ही स्वरूप हैं। आप ही हविष्य हैं। वेदों और उपनिषदों के समूह अपनी स्तुतियों द्वारा आपकी ही महिमा का प्रतिपादन करते हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्त्यज –ये आपके ही स्वरूप हैं। मेघों की घटा, बिजली, गर्जना और गड़गड़ाहट भी आप ही हैं । संवत्सर, ॠतु, मास, पक्ष, युग, निमेष, काष्ठा, नक्षत्र, ग्रह और कला भी आप ही हैं । वृक्षों में प्रधान वट-पीपल आदि, पर्वतों में उनके शिखर, वन-जन्तुओं में व्याघ्र, पक्षियों में गरूड़ तथा सर्पों में अनन्त आप ही हैं । समुद्रों में क्षीरसागर, यन्त्रों (अस्त्रों) –में धनुष, चलाये जाने वाले आयुधों में वज्र और व्रतों में सत्य भी आप ही हैं । आप ही द्वेष, इच्छा, राग, मोह, क्षमा, अक्ष्मा, व्यवसाय, धैर्य, लोभ, काम, क्रोध, जय तथा पराजय हैं । आप गदा, बाण, धनुष, खाटका अंग तथा झर्झर नामक अस्त्र धारण करने वाले हैं। आप छेदन, भेदन और प्रहार करने वाले हैं। सत्पथ पर ले जाने वाले, शुभ का मनन करने वाले तथा पिता माने गये हैं । दस लक्षणों वाला धर्म तथा अर्थ और काम भी आप ही हैं। गंगा, समुद्र, नदियाँ, गड़हे, तालाब, लता, वल्ली, तृण, ओषधि, पशु, मृग, पक्षी, द्रव्य और कर्मों के आरम्भ तथा फूल और फल देनेवाला काल भी आप ही हैं । आप देवताओं के आदि और अन्त हैं। गायत्री मन्त्र और ॐकार भी आप ही हैं। हरित, लोहित, नील, कृष्ण, रक्त, अरूण, कद्रु, कपिल, कबूतर के समान तथा मेचक (श्याम मेघ के समान ) – ये दस प्रकार के रंग भी आपके ही स्वरूप हैं । आप वर्ण रहित होने के कारण अवर्ण और अच्छे वर्ण वाले होने से सुवर्ण कहलाते हैं। आप वर्णों के निर्माता और मेघ के समान हैं। आपके नाम में सुन्दर वर्णों (अक्षरों) – का उपयोग हुआ है, इसलिये आप सुवर्णनामा हैं तथा आपको श्रेष्ठ वर्ण प्रिय हैं । आप ही इन्द्र, यम, वरूण, कुबेर, अग्नि, सूर्यचन्द्र का ग्रहण, चित्रभानु (सूर्य), राहू और भानू हैं । होत्र (स्त्रवा), होता, हवनीय पदार्थ, हवन-क्रिया तथा (उसके फल देने वाले) परमेश्वर भी आप ही हैं। वेद की त्रिसौपर्ण नामक श्रुतियों में तथा यजुर्वेद के शतरूद्रिय-प्रकरण में जो बहुत-से-वैदिक नाम हैं, वे सब आपही के नाम हैं ।
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