महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 288 श्लोक 17-32
अष्टाशीत्यधिकद्विशततम (288) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
'मनुष्य पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही भोजन, वस्त्र तथा अपने माता-पिता के द्वारा संग्रह किया हुआ धन प्राप्त करता है। संसार में जो कुछ मिलता है, वह पूर्वकृत कर्मों के फल के अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है' । 'संसार में सभी प्राणी अपने कर्मों से सुरक्षित हो सारी पृथ्वी की दौड़ लगाते हैं और विधाता ने उनके प्रारब्ध के अनुसार जो आहार नियत कर दिया है, उसे प्राप्त करते हैं' । 'जो स्वयं ही शरीर की दृष्टि से मिट्टी का लोंदामात्र है, सर्वदा परतन्त्र है, वह अदृढ मनवाला मनुष्य स्वजनों का पोषण और रक्षण करने में कैसे समर्थ हो सकता है ?' 'जब स्वजनों को तुम्हारे देखत-देखते ही मौत मार ही डालती है और तुम उन्हें बचाने के लिये महान प्रयत्न करने पर भी सफल नहीं हो पाते, तब इस विषय में तुम्हें स्वयं ही यह विचार करना चाहिये कि मेरी क्या शक्ति है ?' 'यदि वे स्वजन जीवित रह जायें तो भी इनके भरण-पोषण और संरक्षण का कार्य समाप्त होने से पहले ही तुम इन्हें छोड़कर पीछे स्वयं भी तो मर जाओगे' । 'अथवा जब कोई स्वजन मरकर इस लोक से चला जायेगा, तब उसके विषय में यह कभी नहीं जान सकोगे कि वह सुखी है या दुखी, अत: इस विषय में तुम्हें स्वयं ही विचार करना चाहिये' । 'तुम जीवित रहो या मर जाओ। तुम्हारा प्रत्येक स्वजन जब अपनी-अपनी करनी का ही फल भोगेगा, तब इस बात को जानकर तुम्हें भी अपने कल्याण के लिये साधन में लग जाना चाहिये' । 'ऐसा जानकर इस संसार में कौन किसका है, इस बात का भलीभाँति विचार करके अपने मन को मोक्ष में लगा दो और साथ ही पुन: इस बात पर ध्यान दो' । 'जिसने क्षुधा, पिपासा, क्रोध, लोभ और मोह आदि भावों पर विजय पा ली है, वह सत्वसम्पन्न पुरूष सदा मुक्त ही है' । 'जो मोहवश जूआ, मद्यपान, परस्त्रीसंसर्ग तथा मृगया आदि व्यसनों में आसक्त होने का प्रमाद नहीं करता है, वह भी सदा मुक्त ही है' । 'जो पुरूष सदा प्रत्येक दिन और प्रत्येक रात्रि में भोग भोगने या भोजन करने की ही चिन्ता में पड़कर दु:खी रहता है, वह दोषबुद्धि से युक्त कहलाता है' । 'जो सदा योगयुक्त रहकर स्त्रियों के प्रति अपने भाव (अनुराग या आसक्ति) - को निवृत हुआ ही देखता है अर्थात जिसकी स्त्रियों के प्रति भोग्यबुद्धि नहीं होती, वही वास्तव में मुक्त है' । 'जो प्राणियों के जन्म, मृत्यु और चैष्टाओं को ठीक-ठीक जानता है, वह भी इस संसार में मुक्त ही है' । 'जो हजारों और करोड़ों गाड़ी अन्न में से केवल एक प्रस्थ (पेट भरने लायक) - को ही अपने जीवन-निर्वाह के लिये पर्याप्त समझता है (उससे अधिक का संग्रह करना नहीं चाहता) तथा बड़े-से-बड़े महल में मंच बिछाने भर की जगह को ही अपने लिये पर्याप्त समझता है, वह मुक्त हो जाता है' । 'जो इस जगत को रोगों से पीड़ित, जीविका के अभाव से दुर्बल और मृत्यु के आघात से नष्ट हुआ देखता है, वह मुक्त हो जाता है' । 'जो ऐसा देखता है, वह संतुष्ट एवं मुक्त होता है; किंतु जो ऐसा नहीं देखता, वह मारा जाता है- जन्म, मृत्यु के चक्रमें पड़ा रहता है। जो थोड़े से लाभ में ही संतुष्ट रहता है, वह इस जगत में मुक्त ही है' ।
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