महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 288 श्लोक 33-47
अष्टाशीत्यधिकद्विशततम (288) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
'जो इस समपूर्ण जगत को अग्नि और सोम (भोक्ता और भोज्य) रूप ही देखता है और स्वयं को उनसे भिन्न समझता है, उसे माया के अद्भुत भाव -सुख-दुख आदि छू नहीं सकते। वह सर्वथा मुक्त ही है' । 'जिसे देहधारी के लिये पलंग की सेज और भूमि- दोनों समान है; जो अगहनी के चावल और कोदो आदि को एक -सा समझता है, वह मुक्त ही है' । 'जिसके लिये सन के वस्त्र, कुश के चीर, रेशमी वस्त्र, वल्कल, ऊनी वस्त्र और मृगचर्म -सब समान हैं, वह भी मुक्त ही है' । 'जो संसार को पाञ्चभौतिक देखता और उस दृष्टि के अनुसार ही बर्ताव करता है, वह भी इस जगत में मुक्त ही है' । 'जिसकी दृष्टि में सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय सम है तथा जिसके इच्छा-द्वेष्, भय और उद्वेग सर्वथा नष्ट हो गये हैं, वही मुक्त है' । 'यह शरीर क्या है, बहुत-से दोषों का भण्डार। इसमें रक्त, मल-मूत्र तथा और भी अनेक दोषों का संचय हुआ है। जो इस बात को देखता और समझता है, वह मुक्त हो जाता है' । 'बुढापा आने पर इस शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। सिर के बाल सफेद हो जाते हैं। देह दुबली-पतली एवं कान्हिीन हो जाती है तथा कमर झुक जाने के कारण मनुष्य कुबड़ा-सा हो जाता है। इन सब बातों की ओर जिसकी सदा ही दृष्टि रहती है, वह मुक्त हो जाता है' । 'समय आने पर पुरूषत्व नष्ट हो जाता है, आँखों से दिखायी नहीं देता है, कान बहरे हो जाते हैं और प्राणशक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाती है। इन सब बातों को जो सदा देखता और इन पर विचार करता रहता है, वह संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है' । 'कितने ही ॠषि देवता तथा असुर इस लोक से परलोक को चले गये। जो सदा यह देखता और स्मरण रखता है वह मुक्त हो जाता है' । 'सहस्त्रों प्रभावशाली नरेश इस पृथ्वी को छोड़कर काल के गाल में चले गये। इस बात को जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है' । 'इस संसार में धन दुर्लभ है और कलेश सुलभ। कुटुम्ब के पालन-पोषण के लिये भी जहाँ बहुत दुख उठाना पड़ता है, यह सब जिसकी दृष्टि में है, वह मुक्त हो जाता है' । 'इतना ही नहीं, इस जगत में अपनी संतानों की गुणहीनता का दुख भी देखना पड़ता है। विपरीत गुणवाले मनुष्यों से भी संबंध हो जाता है। इस प्रकार जो यहाँ अधिकांश कष्ट ही देखता है, ऐसा कौन मनुष्य मोक्ष का आदर नहीं करेगा ? ' 'जो मुनष्य शास्त्रों के अध्ययन तथा लौकिक अनुभव से भी ज्ञानसम्पन्न होकर समस्त मानव-जगत को सारहीन-सा देखता है, वह सब प्रकार से मुक्त ही है' । 'मेरे इस वचन को सुनकर तुम अपनी बुद्धि को व्याकुलता से रहित बनाकर गृहस्थाश्रम में या संन्यासआश्रम में चाहे जहाँ रहकर मुक्त की भाँति आचरण करो' । राजा सगर अरिष्टनेमि के उपर्युक्त उपदेश को भलीभाँति सुनकर मोक्षोपयोगी गुणों से सम्पन्न हो प्रजा का पालन करने लगे ।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अर्न्गत मोक्षधर्मपर्व में सगर और अरिष्टनेमिका संवाद विषयक दो सौ अट्ठासिवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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