महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 291 श्लोक 1-13
एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पराशरगीता-कर्मफल की अनिवार्यता तथा पुण्यकर्म से लाभ
पराशरजी कहते हैं -राजन् ! इन्द्रिय रूप घोड़ों से युक्त मनोमय (सूक्ष्म शरीर) एक रथ है। ज्ञानाकार वृत्तियाँ ही इस रथ के घोड़ों की बागडोर हैं। इन उपकरणों से युक्त रथपर आरूढ होकर जो पुरूष यात्रा करता है, वह बुद्धिमान है । जो मनुष्य इन्द्रियों की बाह्य वृति से रहित (अन्तर्मुख) होकर ईश्वर की शरण में गये हुए मन के द्वारा उनकी उपासना करता है, उसकी वह उपासना श्रेष्ठ समझी जाती है। ऐसी उपासना किसी विद्वान एवं भक्त ब्राह्मण के वरद हस्त से ही उपलब्ध होती है। समान योग्यता वाले आपस के लोगों से उसकी प्राप्ति नहीं होती । प्रजानाथ ! मनुष्य-शरीर की आयु सुलभ नहीं है- वह दुर्लभ वस्तु है, उसे पाकर आत्मा को नीचे नहीं गिराना चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि वह पुण्य कर्म के अनुष्ठान द्वारा आत्मा के उत्थान के लिये सदा प्रयत्न करता रहे । जो मनुष्य दुष्कर्म करके वर्ण से भ्रष्ट हो जाता है, वह कदापि सम्मान पाने के योग्य नहीं है। इसके सिवा जो मनुष्य सत्वगुण के द्वारा सत्कार पाकर फिर राजस कर्म का सेवन करने लगता है, वह भी सम्मान के योग्य नही है । पुण्य कर्म से ही मनुष्य उत्तम वर्ण में जन्म पाता है। पापी के लिये वह अत्यन्त दुर्लभ है। वह उसे न पाकर अपने पाप कर्म के द्वारा अपना ही नाश करता है । अनजान में जो पाप बन जाय उसे तपस्या के द्वारा नष्ट कर दे; क्योंकि अपना किया हुआ पापकर्म पापरूप दु:ख के रूप में ही फलता है। अत: दु:खमय फल देने वाले पापकर्म का कदापि सेवन न करें । पाप से संबंध रखने वाला जो कर्म है उसका कितना ही बड़ा लौकिक सुखरूप फल क्यों न हो; बुद्धिमान पुरूष उसका कदापि सेवन न करे। वह उससे उसी तरह दूर रहे जैसे पवित्र मनुष्य चाण्डाल से । क्या पापकर्म का कोई दु:खदायक फल मैं देखता हूँ ? अर्थात नहीं देखता। ऐसा मानकर पाप में प्रवृत हुए मनुष्य को परमात्मा का चिन्तन अच्छा नहीं लगता । इस संसार में जिस मूर्ख को तत्व ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती उस मनुष्य को परलोक में जाने पर महान संताप भोगना पड़ता है । नरेन्द्र ! बिना रँगा हुआ वस्त्र धोने से स्वच्छ हो जाता है; किंतु जो काले रंग में रँगा हो वह प्रयत्न करेन से भी सफेद नहीं होता, पाप को भी ऐसा ही समझो। उसका रंग भी जल्दी नहीं उतरता है । जो स्वयं जान-बूझकर पाप करने के पश्चात उसके प्रायश्चित के उद्देश्य से शुभ कर्म का अनुष्ठान करता है, वह शुभ और अशुभ दोनों का पृथक-पृथक फल भोगता है । अनजान में जो हिंसा हो जाती है उसे अहिंसा व्रत का पालन दूर कर देता है। ब्रह्मवादी ब्राह्मण शास्त्र की आज्ञा के अनुसार ऐसा ही कहते हैं; किंतु स्वेच्छा से किये हुए हिंसामय पापकर्म को अहिंसा का व्रत भी दूर नहीं कर सकता। ऐसा वेदशास्त्रों के ज्ञाता, वेद का उपदेश देने वाले ब्राह्मणों का कथन है ।
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