महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 291 श्लोक 14-23
एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
परंतु मैं तो ऐसा देखता हूँ कि जो कर्म किया गया है वह पुण्य हो या पापयुक्त, प्रकटरूप में किया गया हो या छिपाकर (तथा जान-बूझकर किया गया हो या अनजान में), वह अपना फल अवश्य देता ही है । धर्मज्ञ राजा जनक ! जैसे मन से सोच-विचारकर बुद्धिद्वारा निश्चय करके जो स्थूल या सूक्ष्म कर्म यहाँ किये जाते हैं वे यथायोग्य फल अवश्य देते हैं। उसी प्रकार हिंसा आदि उग्र कर्म के द्वारा अनजान में किया हुआ भयंकर पाप यदि सदा बनता रहे तो उसका फल भी मिलता ही है; अन्तर इतना ही है कि जान-बूझकर किये हुए कर्म की अपेक्षा उसका फल बहुत कम हो जाता है । देवताओं और मुनियों द्वारा जो अनुचित कर्म किये गये हों धर्मात्मा पुरूष उनका अनुकरण करे; और उन कर्मों को सुनकर भी उन देवता आदि की निन्दा भी न करे । राजन ! जो मनुष्य मन से खूब सोच-विचारकर, 'अमुक काम मुझसे हो सकेगा या नहीं' - इसका निश्चय करके शुभ कर्म का अनुष्ठान करता है, वह अवश्य ही अपनी भलाई देखता है । जैसे नये बने हुए कच्चे घड़े में रखा हुआ जल नष्ट हो जाता है, परंतु पके-पकाये घड़े में रखा हुआ ज्यों-का-त्यों बना रहता है, उसी प्रकार परिपक्व विशुद्ध अन्त:करण में सम्पादित सुखदायक शुभकर्म निश्चल रहते हैं । राजन ! उसी जलयुक्त पक्के घड़े में यदि दूसरा जल डाला जाय तो पात्र में रखा हुआ पहले का जल और नया डाला हुआ जल - दोनों मिलकर बढ जाते हैं और इस प्रकार वह घड़ा अधिक जल से सम्पन्न हो जाता है। उसी तरह यहाँ विवेकपूर्वक किये हुए जो पुण्य कर्म संचित हैं, उन्हीं के समान जो नये पुण्य कर्म किये जाते हैं-वे दोनों मिलकर अधिक पुण्यतम कर्म हो जाते हैं (और उनके द्वारा वह पुरूष महान पुण्यात्मा हो जाता है) । नरेश्वर ! राजा को चाहिये कि वह बढे हुए शत्रुओं को जीते। प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करे। नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा अग्निदेव को तृप्त करे तथा वैराग्य होने पर मध्यम अवस्था में अथवा अन्तिम अवस्था में वन में जाकर रहे । राजन ! प्रत्यके पुरूष को इन्द्रियसंयमी और धर्मात्मा होकर समस्त प्राणियों को अपने ही समान समझना चाहिये। जो विद्या, तप और अवस्था में अपने से बड़े हों अथवा गुरू-कोटि के लोग हों, उन सबकी यथाशक्ति पूजा करनी चाहिये। सत्यभाषण और अच्छे आचार-विचार से ही सुख मिलता है ।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पराशरगीताविषयक दो सौ इक्यानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
« पीछे | आगे » |