महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 296 श्लोक 14-29
षण्णवत्यधिकद्विशततम (296) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
विदेहराज ! मेरे पितामह वसिष्ठजी, काश्यम-गोक्त्रीय ॠष्यश्रृगं, वेद, ताण्ड्य, कृप, कक्षीवान्, कमठ आदि, यवक्रीत, वक्ताओं में श्रेष्ठ द्रोण, आयु, मतंग, दत्त, द्रुपद तथा मत्स्य - ये सब तपस्या का आश्रय लेने से ही अपनी-अपनी प्रकृति को प्राप्त हुए थे। इन्द्रिय संयम और तप से ही वे वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे । पृथ्वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं । जनक ने पूछा - भगवन् ! आप मुझे सब वर्णों के विशेष धर्म बताइये, फिर सामान्य धर्मों का भी वर्णन कीजिये; क्योंकि आप सब विषयों का प्रतिपादन करने में कुशल हैं । पराशर जी ने कहा - राजन ! दान लेना, यज्ञ कराना तथा विद्या पढाना-ये ब्राह्मणों के विशेष धर्म हैं (जो उनकी जीविका के साधन हैं )। प्रजा की रक्षा करना क्षत्रिय के लिये श्रेष्ठ धर्म है । नरेश्वर ! कृषि, पशुपालन और व्यापार - ये वैश्यों के कर्म हैं तथा द्विजातियों की सेवा शूद्र का धर्म है । महाराज ! ये वर्णों के विशेष धर्म बताये गये हैं। तात ! अब उनके साधारण धर्मों का विस्तारपूर्वक वर्णन मुझसे सुनो । क्रूरता का अभाव (दया), अंहिसा, अप्रमाद (सावधानी), देवता-पितर आदि को उनके भाग समर्पित करना अथवा दान देना, श्राद्धकर्म, अतिथिसत्कार, सत्य, अक्रोध, अपनी ही पत्नी में संतुष्ट रहना, पवित्रता रखना, कभी किसी के दोष न देखना, आत्मज्ञान तथा सहनशीलता - ये सभी वर्णों के सामान्य धर्म हैं । नरश्रेष्ठ ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य - ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। उपर्युक्त धर्मों में इन्हीं का अधिकार है । नरेश्वर ! ये तीन वर्ण विपरीत कर्मों में प्रवृत होने पर पतित हो जाते हैं। सत्पुरूषों का आश्रय ले अपने-अपने कर्मों में लगे रहने से जैसे इनकी उन्नति होती है, वैसे ही विपरीत कर्मों के आचरण से पतन भी हो जाता है । यह निश्चय है कि शूद्र पतित नहीं होता तथा वह उपनयन आदि संस्कार का भी अधिकारी नहीं है। उसे वैदिक अग्निहोत्र आदि कर्मों के अनुष्ठान का भी अधिकार नहीं प्राप्त है; परंतु उपर्युक्त सामान्य धर्मों का उसके लिये निषेध भी नहीं किया गया है । महाराज विदेहनरेश ! वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न द्विज शूद्र को प्रजापति के तुल्य बताते हैं (क्योंकि वह परिचार्या द्वारा समस्त प्रजा का पालन करता है); परंतु नरेन्द्र ! मैं तो उसे सम्पूर्ण जगत के प्रधान रक्षक भगवान विष्णु के रूप में देखता हूँ (क्योंकि पालन कर्म विष्णुका ही है और वह अपने उस कर्म द्वारा पालनकर्ता श्रीहरि की आराधना करके उन्हीं को प्राप्त होता है) । हीनवर्ण के मनुष्य (शुद्र) यदि अपना उद्धार करना चाहें तो सदाचार का पालन करते हुए आत्मा को उन्नत बनाने वाली समस्त क्रियाओं का अनुष्ठान करें; परंतु वैदिक मन्त्र का उच्चारण न करें। ऐसा करने से वे दोष के भागी नहीं होते हैं ।
« पीछे | आगे » |