महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 296 श्लोक 30-39

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षण्‍णवत्‍यधिकद्विशततम (296) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षण्‍णवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद

इतर जातीय मनुष्‍य भी जैसे-जैसे सदाचार का आश्रय लेते हैं, वैसे-ही-वैसे सुख पाकर इहलोक और परलोक में भी आनन्‍द भोगते हैं । जनक ने पूछा- महामुने ! मनुष्‍य को उसके कर्म दूषित करते हैं या जाति ? मेरे मन में यह संदेह उत्‍पन्‍न हुआ है, आप इसका विवेचन कीजिये । पराशरजीने कहा - महाराज ! इसमें संदेह नहीं कि कर्म और जाति दोनो ही दोषकारक होते हैं; परंतु इसमें जो विशेष बात है, उसे बताता हूँ, सुनो । जो जाति और कर्म - इन दोनों से श्रेष्‍ठ तथा पापकर्म का सेवन नहीं करता एवं जाति से दूषित होकर भी जो पापकर्म नहीं करता है, वही पुरूष कहलाने योग्‍य है । जाति से श्रेष्‍ठ पुरूष भी यदि निन्दित कर्म करता है तो वह कर्म उसे कलंकित कर देता है; इसलिये किसी भी दृष्टि से बुरा कर्म करना अच्‍छा नहीं है । जनक ने पूछा - द्विजश्रेष्‍ठ ! इस लोक में कौन-कौन-से ऐसे धर्मानुकूल कर्म है, जिनका अनुष्‍ठान करते समय कभी किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं होती ? पराशर जी ने कहा- महाराज ! तुम जिन कर्मों के विषय में पूछ रहे हो, उन्‍हें बताता हूँ, मुझसे सुनो। जो कर्म हिंसा से रहित हैं, वे सदा मनुष्‍य की रक्षा करते हैं । जो लोग (संन्‍यास की दीक्षा ले) अग्निहोत्र का त्‍याग करके उदासीन भाव से सब कुछ देखते रहते हैं और सब प्रकार की चिन्‍ताओं से रहित हो क्रमश: कल्‍याणकारी कर्म के पथपर आरूढ होकर नम्रता, विनय और इन्द्रियसंयम आदि गुणों को अपनाते तथा तीक्ष्‍ण व्रत का पालन करते हैं, वे सब कर्मों से रहित हो अविनाशी पद को प्राप्‍त कर लेते हैं । राजन ! सभी वर्णों के लोग इस जीव-जगत में अपने-अपने धर्मानुसार कर्म का भलीभाँति अनुष्‍ठान करके, सदा सत्‍य बोलकर तथा भयानक पापकर्म का सर्वथा परित्‍याग करके स्‍वर्गलोक में जाते हैं। इस विषय में कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पराशरगीता विषयक दो सौ छानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।