महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 297 श्लोक 1-12
सप्तनवत्यधिकद्विशततम (297) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पराशरगीता—नाना प्रकार के धर्म और कर्तव्यों का उपदेश
राजन् ! संसार में पिता, सखा, गुरूजन और स्त्रियाँ - ये कोई भी उसके नहीं होते, जो सर्वथा गुणहीन हैं; किंतु जो प्रभु के अनन्य भक्त, प्रियवादी, हितैषी और इन्द्रियविजयी हैं, वे ही उसके होते हैं अर्थात उसका त्याग नहीं करते । पिता मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ देवता है। कोई-कोई पिता को माता से भी बढकर बताते हैं। श्रेष्ठ पुरूष ज्ञान के लाभ को ही परम लाभ कहते हैं। जिन्होंने श्रोत्र आदि इन्द्रियों और शब्द आदि विषयों पर विजय पा ली है, वे परमपद को प्राप्त होते हैं । क्षत्रिय का पुत्र यदि समरागण में घायल होकर बाणों की चिता पर दग्ध होता है तो वह देवदुर्लभ लोकों में जाता और वहाँ आनन्दपूर्वक स्वर्गीय-सुख भोगता है । राजन ! जो युद्ध में थका हुआ हो, भयभीत हो, जिसने हथियार नीचे डाल दिया हो, जो रोता हो, पीठ दिखाकर भाग रहा हो, जिसके पास युद्ध का कोई भी सामान न रह गया हो, जो युद्ध विषयक उद्यम छोड़ चुका हो, रोगी हो और प्राणों की भीख माँगता हो तथा जो अवस्था में बालक या वृद्ध हो ऐसे शत्रु का वध नहीं करना चाहिये । किंतु जिसके पास यु्द्ध का सामान हो, जो युद्ध के लिये तैयार हो और अपने बराबर का हो, संग्राम भूमि में उस क्षत्रिय कुमार को राजा अवश्य जीतने का प्रयत्न करे । अपने समान या अपनी अपेक्षा बड़े वीर के हाथ से वध होना श्रेष्ठ है, ऐसा युद्ध-शास्त्र के ज्ञाताओं का निश्चय है। अपने से हीन, कातर तथा दीन पुरूष के हाथ से होने वाली मृत्यु निन्दित है । नरेश्वर ! पापी, पापाचारी और हीन मनुष्य के हाथ से जो वध होता है, वह पापरूप ही बताया गया है तथा वह नरक में गिराने वाला है, यही शास्त्र का निश्चय है । राजन् ! मृत्यु के वश में पड़े हुए प्राणी को कोई बचा नहीं सकता और जिसकी आयु शेष है, उसे कोई मार भी नहीं सकता । मनुष्य को चाहिये कि उसके प्रियजन यदि कोई हिंसात्मक कर्म उसके लिये करते हों तो वह उन सब कर्मों को रोक दे । दूसरे की आयु से अपनी आयु बढाने की अर्थात दूसरों के प्राण लेकर अपने प्राण बचाने की इच्छा न करे । तात ! मरने की इच्छा वाले समस्त गृहस्थों के लिये तो वही मृत्यु सबसे उत्तम मानी गयी है, जो गंगादि पवित्र नदियों के तटों पर शुभ कर्मों का अनुष्ठान करते हुए प्राप्त हो ।। जब आयु समाप्त हो जाती है तभी देहधारी जीव पंचत्व को प्राप्त होता है। यह बिना कारण के भी हो जाता है और कभी विभिन्न कारणों से उपपादित होता है । जो लोग देह को पाकर हठपूर्वक उसका परित्याग कर देते हैं, उनको पूर्ववत ही यातनामय शरीर की प्राप्ति होती है। ऐसे लोग (मोक्ष के साधनरूप मनुष्य शरीर को पाकर भी आत्महत्या के कारण उस लाभ से वंचित हो) एक घर से दूसरे घर में जाने वाले मनुष्य के समान एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होते हैं ।
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