महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 300 श्लोक 34-50

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त्रिशततम (300) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिशततम अध्याय श्लोक 34-50 का हिन्दी अनुवाद

कुन्‍तीकुमार ! नृपश्रेष्‍ठ ! जैसे सावधान नाविक समुद्र में पड़ी हुई नौका को शीघ्र ही किनारे पर लगा देता है, उसी प्रकार योग के अनुसार तत्‍व को जानने वाला पुरूष समाधि के द्वारा मन को परमात्‍मा में लगाकर इस देह का त्‍याग करने के अनन्‍तर दुर्गम स्‍थान (परमधाम) को प्राप्‍त होता है । पुरूषप्रवर ! राजन ! जिस तरह अत्‍यन्‍त सावधान रहने वाला सारथि अच्‍छे घोड़ों को रथ में जोतकर धनुर्धर योद्धा को तुरंत ही अभीष्‍ट स्‍थान पर पहुँचा देता है, वैसे ही धारणाओं में एकाग्रचित्‍ हुआ योगी लक्ष्‍य की ओर छोड़े हुए बाण की भाँति शीघ्र परम पद को प्राप्‍त हो जाता है । जो योगी समाधि के द्वारा आत्‍मा को परमात्‍मा में स्थिर करके अचल हो जाता है, वह अपने पाप को नष्‍ट कर देता है और पवित्र पुरूषों को प्राप्‍त होने वाले अविनाशी पद को पा लेता है । अमित पराक्रमी नरेश ! योग के महान व्रत में एकाग्रचित रहने वाला जो योगी नाभि, कण्‍ठ, मस्‍तक, हृदय, वृक्ष:स्‍थल, पार्श्‍वभाग, नेत्र, कान और नासिका आदि स्‍थानों में धारणा के द्वारा सूक्ष्‍म आत्‍मा को परमात्‍मा के साथ भलीभाँति संयुक्‍त करता है, वह यदि इच्‍छा करे तो अपने पर्वताकार विशाल शुभाशुभ कर्मों को शीघ्र ही भस्‍म करके उत्‍तम योग का आश्रय लेकर मुक्‍त हो जाता है । युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्‍दन ! योगी कैसे आहार करके और किन-किन को जीतकर योगशक्ति प्राप्‍त कर लेता है, यह आप मुझे बताने की कृपा करें । भीष्‍म जी ने कहा – भारत ! जो धान की खुद्दी और तिल की खली खाता तथा घी-तेल का परित्‍याग कर देता है, उसी योगी को योगबल की प्राप्ति होती है । शत्रुदमन नरेश ! जो दीर्घकाल तक एक समय जौ का रूखा दलिया खाता है, वह योगी शुद्धचित होकर योगबल की प्राप्ति कर सकता है । जो योगी दुग्‍धमिश्रित जल को दिन में एक बार पीता है; फिर पंद्रह दिनों में एक बार पीता है। तत्‍पश्‍चात एक महीने में, एक ॠतु में और एक वर्ष में एकबार उसे ग्रहण करता है, उसको योगशक्ति प्राप्‍त होती है । नरेश्‍वर ! जो लगातार जीवन भर के लिये मांस नहीं खाता है और विधिपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करके अपने अन्‍त: करण को शुद्ध बना लेता है, वह योगी भी योगशक्ति प्राप्‍त कर लेता है । पृथ्‍वीनाथ ! नृपश्रेष्‍ठ ! काम, क्रोध, सर्दी, गर्मी, वर्षा, भय, शोक, श्‍वास, मनुष्‍यों को प्रिय लगने वाले विषय, दुर्जय असंतोष, घोर तृष्‍णा, स्‍पर्श, निद्रा तथा दुर्जय आलस्‍य को जीतकर वीतराग, महान एवं उत्‍तम बुद्धि से युक्‍त महात्‍मा योगी स्‍वाध्‍याय तथा ध्‍यान का सम्‍पादन करके बुद्धि के द्वारा सूक्ष्‍म आत्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेते हैं । भरतश्रेष्‍ठ ! विद्वान ब्राह्मणों ने योग के इस मार्ग को दुर्गम माना है। कोई बिरला ही इस मार्ग को कुशलपूर्वक कर स‍कता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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