महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 300 श्लोक 51-62

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त्रिशततम (300) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिशततम अध्याय श्लोक 51-62 का हिन्दी अनुवाद

जैसे कोई-कोई बिरला नवयुवक ही अनेकानेक सर्पों तथा बिच्‍छू आदि से भरे हुए गड्ढों और बहुत से काँटों वाले, जलशून्‍य, दुर्गम एवं घोर वन में सकुशल यात्रा कर सकता है तथा जहाँ भोजन मिलना असम्‍भव है, जिसमें प्राय: जंगल-ही-जंगल पड़ता है, जहाँ के वृक्ष दावानल से जलकर भस्‍म हो गये हैं तथा जो चोर-डाकुओं से भरा हुआ है, ऐसे मार्ग को सकुशल तय कर सकता है; उसी प्रकार योगमार्ग आश्रय लेकर कोई बिरला ही द्विज उस पर कुशलपूर्वक चल पाता है, क्‍योंकि वह बहुत-से दोषों (कठिनाइयों) – से भरा हुआ बताया गया है । पृथ्‍वीपते ! छुरे की तीखी धार पर कोई सुखपूर्वक खड़ा रह सकता है; किंतु जिनका चित्‍ शुद्ध नही है, ऐसे मनुष्‍यों का योग की धारणाओं में स्थिर रहना नितान्‍त कठिन है । तात ! नरेश्‍वर ! जैसे समुद्र में बिना नाविक की नाव मनुष्‍यों को पार नही लगा सकती, उसी प्रकार यदि योग की धारणाएँ सिद्ध न हुई तो वे शुभगति की प्रा‍प्ति नही करा सकती । कुन्‍तीनन्‍दन ! जो विधिपूर्वक योग की धारणाओं में स्थिर रहता है, वह जन्‍म, मृत्‍यु, दुख और सुख के बन्‍धनों से छुटकारा पा जाता है । यह मैंने तुम्‍हें योगविषयक नाना शास्‍त्रों का सिद्धान्‍त बतलाया है। योग-साधना का जो-जो कृत्‍य है, वह द्विजातियों के लिये ही निश्चित किया गया है अर्थात उन्‍हीं का उसमें अधिकार है । महात्‍मन ! योगसिद्ध महात्‍मा पुरूष यदि चाहै तो तुरंत ही मुक्‍त होकर महान परब्रह्म के स्‍वरूप को प्राप्‍त कर लेता है अथवा वह अपने योगबल से भगवान ब्रह्मा, वरदायक विष्‍णु, महादेवजी, धर्म, छ: मुखोंवाले कार्तिकेय, ब्रह्माजी के महानुभाव पुत्र सनकादि, कष्‍टदायक तमोगुण, महान रजोगुण, विशुद्ध सत्‍वगुण, मूल प्रकृति, वरूणपत्‍नी सिद्धिदेवी, सम्‍पूर्ण तेज, महान धैर्य, ताराओंसहित आकाश में प्रकाशित होने वाले निर्मल तारापति चन्‍द्रमा, विश्‍वेदेव, नाग, पितर, सम्‍पूर्ण पर्वत, भयंकर समुद्र, सम्‍पूर्ण नदी-समुदाय, वन, मेघ, नाग, वृक्ष, यक्ष, दिशा, गन्‍धर्वगण, समस्‍त पुरूष और स्‍त्री -इनमें प्रत्‍येक के पास पहुँचकर उसके भीतर प्रवेश कर सकता है । नरेश्‍वर ! महान बल और बुद्धि से सम्‍पन्‍न परमात्‍मा से संबन्‍ध रखने वाली यह कल्‍याणमयी वार्ता मैंने प्रसंगवश तुम्‍हें सुनायी है। योगसिद्ध महात्‍मा पुरूष सब मनुष्‍यों से ऊपर उठकर नारायणस्‍वरूप हो जाता है और संकल्‍पमात्र से सृष्टि करने लगता है ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में योगविषयक तीन सौवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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