महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 31 श्लोक 20-47

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एकत्रिंश (31) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 20-47 का हिन्दी अनुवाद

तब मैंने दीन हुए उस नरेश से कहा- ‘महाराज ! संकट के समय मुझे याद करना। मैं तुम्हारे पुत्र को तुमसे मिला दूँगा। पृथ्वीनाथ ! चिन्ता न करो। यमराज के वश में पडत्रे हुए तुम्हारे उस कपंय पुत्र को मैं पुनः उस रूप में लोकर तुम्हें दे दूँगा’। राजा से ऐसा कहकर हम दोनों अपने अभीष्ट स्थान को चल दिये और राजा सृंजय ने अपने इच्छानुसार महल में प्रवेश किया। तदनन्तर किसी समय राजर्षि सृंजय के एक पुत्र हुआ, जो अपने तेज से प्रज्वलित सा हो रहा था। वह महान् बलशाली था। जैसे सरोवर में कमल बढत्रता है, उसी प्रकार वह राजकुमार यथासमय बढ़ने लगा। वह मुख से स्वर्ण उगलने के कारण सुवर्णष्ठीवी नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसका वह नाम सार्थक था। कुरुश्रेष्ठ ! उसका वह अत्यन्त अद्भुत वृत्तानत सारे जगत् में फैल गया। देवराज इन्द्र को भी यह मालूम हो गया कि वह बालक महर्षि पर्वत के वरदान का फल है।। तदनन्तर अपनी पराजय से डरकर बृहस्पति की सम्मति के अनुसार चलते हुए बल और वृत्रासुर का वध करने वाले इन्द्र उस राजकुमार के वध का अवसर देखने लगे। प्रभो ! इनद्र ने मूर्तिमान् होकर सामने खडत्रे हुए अपने दिव्य अस्त्र वज्र से कहा- ‘वज्र ! तुम बाघ बनकर इस राजकुमार को मार डालो। जैसा कि इसके विषय में पर्वत ने बताया है, बड़ा होने पर सृंजय का यह पुत्र अपने पराक्रम से मुझे परास्त कर देगा’।इन्द्र के ऐसा कहने पर शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाला वज्र मौका देखता हुआ सदा उस राजकुमार के आस-पास ही रहने लगा। सृंजय भ्राी देवराज के समान पराक्रमी पुत्र पाकर रानी सहित बडत्रे प्रसन्न हुए और निरन्तर वन मे ही रहने लगे। तदनन्तर एक दिन निर्जन वन में गंगाजी के तट पर वा बालक धाय को साथ लेकर खेलने के लिये गया और इधर-उधर दौड़ने लगा। उस बालक की अवस्था अभी पाँच वर्ष की थी तो भी वह गजराज के समान पराक्रमी थ्सस।
वह सहसा उछलकर आये हुए एक महाबली बाघ के पास जा पहुँचा। उस बाघ ने वहाँ काँपते हुए राजकुमार को गिराकर पीस डाला। वह प्राण शून्य होकर पृथ्वी पर गिर पडत्रा। यह देखकर धाय चिल्ला उठी। राजकुमार की हत्या करके देवराज इन्द्र का भेजा हुआ वह वज्ररूपी बाघ माया से वहीं अदृश्य हो गया।। रोती हुई धाय का वह आर्तनाद सुनकर राजा सृंजय स्वयं ही उस स्थान पर दौड़े हुण् आये। उनहोंने देखा, राजकुमार प्राणशून्य होकर आकाश से गिरे हुए चनद्रमा की भाँति पड़ा है। उसका सारा रक्त बाघ के द्वारा पी लिया गया है और वह आनन्दहीन हो गया है। खून से लथपथ हुए उस बालक को गोद में लेकर व्यथित हुए राजा सृंजय व्याकुल होकर विलाप करने लगे।। तदनन्तर शोक से पीडि़त हो उसकी माताएँ रेाती हुई उस स्थान की ओर दौड़ी, जहाँ राजा सृंजय विलाप करते थे।। उस समय अचेत से होकर राजा ने मेरा ही स्मरण किया। तब मैंने उनका चिन्तन जानकर उन्हें दर्शन दिया।। पृथ्वीपते ! यदुवीर श्रीकृष्ण ने जो बातें तुम्हारे सामने कही हैं, उन्हीं को मैंने उस शोकाकुल राजा को सुनाया।। फिर इन्द्र की अनुमति से उस बालक को जीवित भी कर दिया। उसकी वैसी ही होनहार थी। उसे कोई पलट नहीं सकता था। तदनन्तर महायशस्वी और शक्तिशाली कुमार सुवर्णष्ठीवी ने जीवित होकर पिता और माता के चित्त को प्रसन्न किया। नरेश्वर ! उस भयानक पराक्रमी कुमार ने पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर ग्यारह सौ वर्षों तक राज्य किया। तदनन्तर उस महातेजस्वी राजकुमार ने बहुत सी दक्षिणा वाले अनेक महायज्ञों का अनुष्ठान किया और उनके द्वारा देवताओं तथा पितरों की तृप्ति की। राजन् ! इसके बाद उसने बहुत से वंशप्रवर्तक पुत्र उत्पन्न किये और दीर्घकाल के पश्चात् वह काल धर्म को प्राप्त हुआ। राजेन्द्र ! तुम भी अपने हृदय में उत्पन्न हुए इस शोक को दूर करो तथा भगवान् श्रीकृष्ण और महातपस्वी व्यासजी जैसा कह रहे हैं, उसके अनुसार अपने बाप-दादों के राज्य पर आरूढ़ हो इसका भार वहन करो; फिर पुण्यदायक महायज्ञों का अनुष्ठान करके तुम भी अभीष्ट लोक को चले जाओगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में स्वर्णष्ठीवी के जन्म का उपाख्यान विषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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