महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-15

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द्वात्रिंश (32) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

व्यासजी का अनेक युक्तियों से राजा युधिष्ठिर को समझाना वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! राजा युधिष्ठिर को चुपचाप शोक में डूबा हुआ देख धर्म के तत्त्व को जानने वाले तपोधन श्रीकृष्णद्वैपायन ने कहा। व्यासजी बोले - कमलनयन युधिष्ठिर ! राजाओं का धर्म प्रजाजनों का पालन करना ही है। धर्म का अनुसरण करने वाले लोगों के लिये सदा धर्म ही प्रमाण है। अतः राजन् ! तुम अपने बाप-दादों के राज्य को ग्रहण करके उसका धर्मानुसार पालन करो। तपस्या तो ब्राह्मणों का नित्य धर्म है। यही वेद का निश्चय है। भरतश्रेष्ठ ! वह सनातन तप ब्राह्मणों के लिये प्रमाणभूत धर्म है। क्षत्रिय तो उस सम्पूर्ण ब्राह्मण धर्म की रक्षा करने वाला ही है। जो मनुष्य विषयासक्त होकर स्वयं शासन-धर्म का उललंघन करता है, वह लोकमर्यादा का नाश करने वाला है। क्षत्रिय को चाहिये कि अपनी दोनों भुजाओं के बल से उस धर्मद्रोही का दमन करे। जो मोह के वशीभूत हो प्रमाणभूत धर्म और एसका प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को अमान्य कर दे, वह सेवक हो या पुत्र, तपस्वी हो या और कोई; सभी उपायों से उन पापियों का दमन करे अथवा उन्हें नष्ट कर डाले। इसके विपरीत आचरण करने वाला राजा पाप का भागी होता है, जो नष्ट होते हुए धर्म की रक्षा नहीं करता, वह राजा धर्म का घात करने वाला है। पाण्डुनन्दन ! तुमने तो उन्हीं लोगों का सेवकों सहित वध किया है, जो धर्म का नाश करने वाले थे। अपने धर्म में स्थित रहते हुए भी तुम क्यों शोक कर रहे हो ? क्योंकि राजा का कर्तव्य ही है कि वह धर्मद्रोहियों का वध करे, सुपात्रों को दान दे और धर्म के अनुसार प्रजा की रक्षा करे।
युधिष्ठिर बोले - सम्पूर्ण धर्मज्ञों में श्रेष्ठ तपोधन ! आपको धर्म के स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान है। आप जो बात कह रहे हैं, उसपर मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। परंतु ब्रह्मन् ! मैंने तो इस राज्य के लिये अनेक अवध्य पुरुषों का भी वध करा डाला है। मेरे वे ही कर्म मुझे जलाते और पकाते हैं। व्यासजी ने कहा- भरतनन्दन ! जो लोग मारे गये हैं, उनके वध का उत्तरदायित्व किस पर है ? इस प्रश्न को लेकर चार विकल्प हो सकते हैं। ( 1 ) सबका प्रेरक ईश्वर कर्ता है ? या ( 2 ) वध करने वाला पुरुष कर्ता है ? अथवा ( 3 ) मारे जाने वाले पुरुष का हठ ( बिना विचारे किसी काम को कर डालने का दुराग्रही स्वभाव ) कर्ता है ? अािवा ( 4 ) उसके प्रारब्ध कर्म का फल इस रूप में प्राप्त होने के कारण प्रारब्ध ही कर्ता है ? ( 1 ) भारत ! यदि प्रेरक ईश्वर को कर्ता माना जाय तब तो यही कहना पड़ेगा कि ईश्वर से प्रेरित होकर ही मनुष्य शुभ या अशुभ कर्म करता है; अतः उसका फल भी ईश्वर को ही मिलना चाहिये। जैसे कोई पुरुष वन में कुल्हाड़ी द्वारा जब किसी वृक्ष को काटता है, तब उसका पाप कुल्हाड़ी चलाने वाले पुरुष को ही लगता है। कुल्हाड़ी को किसी प्रकार नहीं लगता। अथवा यदि कहें कि ‘उस कुल्हाड़ी को ग्रहण करने के कारण चेतन पुरुष को ही उस हिंसाकर्म का फल प्राप्त होगा ( जड़ होने के कारण कुलहाड़ी को नहीं )’, तब तो जिसने उस शस्त्र को बनाया और जिसने उसमें डंडा लगाया, वह पुरुष ही प्रधान प्रयोजक होने के कारण उसी को उस कर्म का फल मिलना चाहिये। चलाने वाले पुरुष पर उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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