महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 92-109
विंशत्यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जब बोलते समय वक्ता श्रोता की अवहेलना करके दूसरे के लिये अपनी बात कहने लगता है, उस समय वह वाक्य श्रोता के हृदय में प्रवेश नहीं करता है। और जो मनुष्य स्वार्थ त्यागकर दूसरे के लिये कुछ कहता है, उस समय उसके प्रति श्रोता के हृदय में आशंका उत्पन्न होती है, अत: वह वाक्य भी दोषयुक्त ही है। परंतु नरेश्वर ! जो वक्ता अपने और श्रोता दोनों के लिये अनुकूल विषय ही बोलता है, वही वास्तव में वक्ता है, दूसरा नहीं। अत: राजन् ! आप स्थिरचित्त एवं एकाग्र होकर यह वाक्य सम्पत्ति से युक्त सार्थक वचन सुनिये। महाराज ! आपने मुझसे पूछा था कि आप कौन हैं, किसकी हैं और कहाँ से आयी हैं ? अत: इसके उत्तर में मेरा यह कथन एकचित्त होकर सुनिये। राजन् ! जैसे काठ के साथ लाह और धूल के साथ पानी की बूँदें मिलकर एक हो जाती हैं, उसी प्रकार इस जगत् में प्राणियों का जन्म कई तत्वों के मेल से होता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्थ तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ—ये आत्मा से पृथक् होने पर भी काष्ठ में सटे हुए लाह के समान आत्मा के साथ जुडे़ हुए हैं; परंतु इनमें स्वतन्त्र कोई प्रेरणा-शक्ति नहीं है । यही विद्वानों का निश्चय है। इनमें से एक-एक इन्द्रिय को न तो अपना ज्ञान है और न दूसरे का । नेत्र अपने नेत्रत्व को नहीं जानता । इसी प्रकार कान भी अपने विषय में कुछ नहीं जानता। इसी तरह ये इन्द्रियाँ और विषय परस्पर एक-दूसरे से मिल-जुलकर भी नहीं जान सकते । जैसे कि जल और धूल परस्पर मिलकर भी अपने सम्मिश्रण को नहीं जानते। शरीरस्थ इन्द्रियाँ विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव करते समय अन्यान्य बाह्रा गुणों की अपेक्षा रखती हैं । उन गुणों को आप मुझसे सुनिये । रूप,नेत्र, और प्रकाश— ये तीन किसी वस्तु को प्रत्यक्ष देखने में हेतु हैं। जैसे प्रत्यक्ष दर्शन में ये तीन हेतु हैं, उसी प्रकार अन्यान्य ज्ञान और ज्ञेयमें भी तीन-तीन हेतु जानने चाहिये । ज्ञान और ज्ञातव्य विषयों के बीच में किसी ज्ञानेन्द्रिय के अतिरिक्त मन नामक एक दूसरा गुण भी रहता है, जिससे यह जीवात्मा किसी विषय में भले-बुरे का निश्चय करने के लिये विचार करता है। वहीं एक और बारहवाँ गुण भी है, जिसका नाम है बुद्धि । जिससे किसी ज्ञातव्य विषय में संशय उत्पन्न होने पर मनुष्य एक निश्चय पर पहुँचता है। उस बारहवें गुण बुद्धि में सत्वनामक एक (तेरहवाँ) गुण है, जिससे महासत्व और अल्पसत्व प्राणी का अनुमान किया जाता है। उस सत्त्व में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसे अभिमान से युक्त अहंकार नामक एक अन्य चौहदवाँ गुण है, जिससे जीवात्मा ‘यह वस्तु मेरी है और यह वस्तु मेरी नहीं है’ ऐसा मानता है। राजन् ! उस अहंकार में वासना नामक एक गुण और माना गया है, जो पंद्रहवाँ है । वहाँ पृथक्-पृथक् कलाओं के समूह की जो समग्रता है, वह एक-अन्य गुण है । वह संघात की भाँति यहाँ सोलहवाँ कहा जाता है। जिसमें प्रकृति (माया) और व्यक्ति (प्रकाश)— ये दो गुण आश्रित हैं (यहाँ तक सब अठारह हुए)। सुख और दु:ख, जरा और मृत्यु, लाभ और हानि तथा प्रिय और अप्रिय अत्यादि द्वन्द्वों का जो योग है, यह उन्नसीवाँ गुण माना गया है ।
« पीछे | आगे » |