महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 165-178

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विंशत्‍यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 165-178 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्‍वर ! जब आपने महर्षि पंचशिखाचार्य से उपाय (निदिध्‍यासन), उपनिषद् (उसके श्रवण-मनन), उपासंग (यम-नियम आदि योगा) और निश्‍चय (ब्रह्मा) और जीवात्‍मा की एकता का अनुभव)- इन सबके सहित सम्‍पूर्ण मोक्षशास्‍त्र का श्रवण किया है, आप आसक्तियों से मुक्‍त हो गये हैं और सम्‍पूर्ण बन्‍धनों को काटकर खड़े हैं, तब आपकी छत्र-चवँर आदि विशेष-विशेष वस्‍तुओं में आसक्ति कैसे हो रही है ? मैं समझती हूँ कि आपने पंचशिखाचार्य से शास्‍त्र का श्रवण करके भी श्रवण नहीं किया है अथवा उनसे यदि कोई शास्‍त्र सुना है तो उसे सुनकर भी मिथ्‍या कर दिया है; या यह भी हो सकता है कि आपने वेदशास्‍त्र- जैसा प्रतीत होने वाला कोई और ही शास्‍त्र उनसे सुना हो। इतने पर भी यदि आप ‘विदेहराज’ ‘मिथिलापति’ आदि इन लौकिक नामों में ही प्रतिष्ठित हो रहे हैं तो आप दूसरे साधारण मनुष्‍यों की भाँति आसक्ति और अवरोध से ही बँधे हुए हैं। यदि आप सर्वथा मुक्‍त हैं तो मैंने जो बुद्धि के द्वारा आपके भीतर प्रवेश किया है, इसमें आपका क्‍या अपराध किया है ? इन सभी वर्णो में यह नियम प्रसिद्ध है कि संन्‍यासियों को एकान्‍त स्‍थान में रहना चाहिये । मैंने भी आपके शून्‍य शरीर में निवास करके किसी किस वस्‍तु को दूषित कर दिया है ? निष्‍पाप नरेश ! न तो हाथों से, न भूजाओं से, न पैरों से, न जाँघों से और न शरीर के दूसरे ही अवयवों से मैं आपका स्‍पर्श कर रही हूँ । आप महान् कुल में उत्‍पन्‍न, लज्‍जाशील तथा दीर्घ दर्शी पुरूष हैं । हम दोनों ने परस्‍पर भला या बुरा जो कुछ भी किया है, उसे आपको इस भरी सभा में नहीं कहना चाहिये। यहाँ ये सभी वर्णों के गुरू ब्राह्माण विद्यमान हैं । इन गुरूआों की अपेक्षा भी उत्तम कितने ही माननीय महापुरूष यहाँ बैठे हैं तथा आप भी राजा होने के कारण इन सबके लिये गुरूस्‍वरूप हैं । इस प्रकार आप सबका गौरव एक दूसरे पर अव‍लम्बित है। अत: इस प्रकार विचार करके यहाँ क्‍या कहना चाहिये और क्‍या नहीं, इसको जाँच-बूझ लेना आवश्‍यक है । इस भरी सभा में आपको स्‍त्री-पुरूषों के संयोग की चर्चा कदापि नहीं करनी चाहिये । मिथिलानरेश ! जैसे कमल के पत्‍ते पर पड़ा हुआ जल उस पत्‍ते का स्‍पर्श नहीं करता है, उसी प्रकार मैं आपका स्‍पर्श न करती हुई आपके भीतर निवास करूँगी। यद्यपि मैं स्‍पर्श नहीं कर रही हूँ तो भी यदि आप मेरे स्‍पर्श का अनुभव करते हैं तो मुझे यह कहना पड़ता है कि उन संन्‍यासी महात्‍मा पंचशिख ने आपको ज्ञान का उपदेश कैसे कर दिया ? क्‍योंकि आपने उसे निर्बीज कर दिया ? पर स्‍त्री के स्‍पर्श का अनुभव करने के कारण आप गार्हस्‍थयधर्म से तो गिर गये और दुर्बोध एवं दुर्लभ मोक्ष भी नहीं पा सके, अत: केवल मोक्ष की बात करते हुए आप गार्हस्थ्‍य और मोक्ष दोनों के बीच में लटक रहे हैं। जीवन्मुक्‍त ज्ञानी के साथ, एकत्‍व का पृथक्‍त्‍व के साथ तथा भाव (आत्‍मा) का अभाव (प्रकृति) के साथ संयोग होने पर वर्ण संकरता की उत्‍पत्ति नहीं हो सकती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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