महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 179-193

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विंशत्‍यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 179-193 का हिन्दी अनुवाद

मैं मानती हूँ कि समस्‍त पर्ण और आश्रम पृथक्-पृथक् बताये गये हैं। तथापि जिसे ब्रह्मा का साक्षात्‍कार हो गया है, जो अभेदज्ञान से सम्‍पन्‍न है और यह जानकर सारा बर्ताव करता है कि आत्‍मा से भिन्‍न दूसरी किसी वस्‍तु की सत्ता नहीं है तथा अन्‍य वस्‍तु अपने से भिन्‍न दूसरी वस्‍तु में विद्यमान नहीं है, उसका किसी अन्‍य के साथ संयोग होना सम्‍भव नहीं है; अत: वर्णसंकरता नहीं हो सकती। हाथ में कुंडी है, कुंडी में दूध है और दूध में मक्‍खी पड़ी हुई है । ये तीनों परस्‍पर पृथक् होते हुए भी आधाराधेय- भाव सम्‍बन्‍ध से एक दूसरे के आश्रित हो एक साथ हो गये हैं। फिर भी कुंडी में दुग्‍धत्‍व नहीं आया है और दूध भी मक्‍खी नहीं बन गया है । ये सारे आधेय पदार्थ स्‍वयं ही अपने से भिन्‍न आधार को प्राप्‍त होते हैं। सारे आश्रम पृथक्-पृथक् हैं तथा चारों वर्ण भी भिन्‍न हैं । जब इनमें परस्‍पर पार्थक्‍य बना हुआ है, तब पृथक्‍त्‍व को जानने वाले आपके वर्ण का संकर कैसे हो सकता है ? राजन् ! मैं जाति से ब्रह्माणी नहीं हूँ । और न वैश्‍या अथवा शूद्रा ही हूँ । मैं तो आपके समान वर्णवाली क्षत्रिया ही हूँ । मेरा जन्‍म शुद्ध वंश में हुआ है और मैंने अखण्‍ड ब्रह्माचर्य का पालन किया है । आपने प्रधान नामक राजर्षि का नाम अवश्‍य सुना होगा । मैं उन्‍हीं के कुल में उत्‍पन्‍न हुई हूँ । आपको मालूम होना चाहिये कि मेरा नाम सुलभा है। मेरे पूर्वजों के यज्ञों में देवराज इन्‍द्र के सहयोग से द्रोण, शतश्रृंग और चक्रद्वार नामक पर्वत यज्ञवेदी में ईटों की जगह चुने गये थे। मेरा जन्‍म उसी महान् कुल में हुआ है । मैंने अपने योग्‍य पति के न मिलने पर मोक्षधर्म की शिक्षा ली तथा मुनिव्रत धारण करके मैं अकेली विचरती रहती हूँ। मैंने संन्‍यासिनी का छह्रावेष नहीं धारण किया है । मैं पराये धन का अपहरण नहीं करती हूँ और न धर्मसंकरता ही फैलाती हूँ । मैं दृढ़तापूर्वक ब्रह्माचर्यव्रत का पालन करती हुई अपने धर्म में स्थित रहती हूँ। जनेश्‍वर ! मैं अपनी प्रतिज्ञा से कभी विचलित नहीं होती हूँ । बिना सोचे-समझे कोई बात नहीं बोलती हूँ और आपके पास भी यहाँ खूब सोच-विचारकर ही आयी हूँ । मैंने सुना था कि आपकी बुद्धि मोक्षधर्म में लगी हुई है, अत: आपकी मंगलाकांक्षिणी होकर आपके इस मोक्षज्ञान का मर्म जानने के लिये मैं यहाँ आयी हूँ। मैं स्‍वपक्ष और परपक्ष में से अपने पक्ष में स्थित हो पक्षपातपूर्वक यह बात नहीं कर रही हूँ, आपके हित को दृष्टि में रखकर बोलती हूँ; क्‍योंकि जो वाणी का व्‍यायाम नहीं करता और जो शान्‍त परब्रह्मा में निमग्‍न रहता है, वही मुक्‍त है। जैसे नगर के किसी सूने घर में संन्‍यासी एक रात निवास कर लेता है, इसी तरह आपके इस शरीर में मैं आज की रात रहूँगी। आपने मुझे बड़ा सम्‍मान दिया । अपनी वाणी रूप आतिथ्‍य के द्वारा मेरा भलीभाँति सत्‍कार किया । मिथिलानरेश ! अब मैं प्रसन्‍नतापूर्वक आपके शरीर रूपी सुन्‍दर गृह में सोकर कल सबेरे यहाँ से चली जाऊँगी। भीष्‍मजी कहते हैं — राजन् ! सुलभाके ये युक्तियुक्‍त और सार्थक वचन सुनकर राजा जनक इसके बाद और कोई बात नहीं बोले।

इस प्रकार श्री महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में सुलभा और जनक का संवाद विषयक तीन सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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