महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 323 श्लोक 1-21

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त्रयोविंशत्यधिकत्रिशततम (323) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंशत्यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

व्याोस जी की पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्यास और भगवान् शंकर से वर प्राप्ति

युधिष्ठिरने कहा—पितामह ! व्या्सजी के यहाँ महातपस्वी और धर्मात्माश शुकदेवजी का जन्म कैसे हुआ ? तथा उन्हों ने परम सिद्धि कैसे प्राप्तय की ? यह मुझे बताइये । तपस्याम के धनी व्या सजी ने किस स्त्रीा के गर्भ से शुकदेवजी को उत्प‍न्न? किया ? हमें उन महात्मा शुकदेवजी की माता का नाम नहीं मालूम है और हम उनके श्रेष्ठभ जन्मो का वृत्तान्तर भी नहीं जानते हैं । शुकदेवजी अभी बालक थे तो भी सूक्ष्मक ज्ञान में उनकी बुद्धि कैसे लगी ? इस संसार में उनके सिवा दूसरे किसी की ऐसी बुद्धि नहीं देखी गयी । महामते ! मैं इस प्रसंग को विस्ताकरपूर्वक सुनना चाहता हूँ । आपका यह अमृत के समान उत्तम एवं मधुर प्रवचन सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है ।पितामह ! आप मुझे शुकदेवजी का महात्य्ु , आत्म‍योग और विज्ञान यथार्थ रीति से क्रमश: बताइये । भीष्मपजीने कहा— राजन् ! कोई अधिक वर्षों की अवस्थाऔ हो जाने से, बाल पक जाने से, अधिक धन होने से तथा भाई-बन्धु ओं की संख्याि बढ़ जाने से भी बड़ा नहीं होता । ऋषियों ने यह नियम बताया है कि हम लोगों में से जो वेदों का प्रवचन कर सकेगा, वही महान् माना जायेगा । पाण्डुहनन्द न ! तुम मुझसे जिसके विषय में पूछ रहे हो, उस सब की जड़ तपस्यास है । इन्द्रियों को संयम करने से ही तपस्याो की सिद्धि होती है, अन्य था नहीं । इसमें संदेह नहीं कि मनुष्यन इन्द्रियों की विषयासक्ति के कारण ही दोष को प्राप्त होता है और उन्हींछ इन्द्रियों को काबू में कर लेने पर वह सिद्धि का भागी होता है । तात ! सहस्त्रों अश्वंमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञों का जो फल है, वह योग की सोलहवीं कला के फल की समानता नहीं कर सकता है ।राजन् ! मैं तुम्हेंल शुकदेवजी का जन्मी–वृ योगफल तथा अजितात्मास पुरूषों की समझ में न आने उनकी उत्कृेष्टु गति बता रहा हूँ । कहते हैं, पूर्वकाल में कनेर के वनों से सुश मेरूपर्वत के शिखर पर भगवान् शंकर भयानक भूतग साथ ले बिहार करते थे । वहीं गिरिराजकुमारी उमा देवी भी उनके साथ निवास करती थीं । उन्हीं दिनों श्रीकृष्णल द्वैपायन उस पर्वत पर दिव्यस तपस्यास कर रहे थे । कुरूश्रेष्ठन ! योगधर्मपरायण व्याैस योग के द्वारा मन को परमात्मास में लगाकर धारणापूर्वक तप का अनुसचरण करते थे । उनके तप का उद्वेश्यो था पुत्र की प्राप्ति। उन्होंरने यह संकल्पम लेकर कि मुझे अग्नि, जल, वायु अथवा आकाश के समान धैर्यशाली पुत्र हो, तपस्यान आरम्भल की थी । उक्तु संकल्पे लेकर योग के द्वारा उत्तम तप लगे हुए वेदव्याहसजी ने अजितात्मां पुरूषों के लिये देवेश्व र महादेवजी से वर-प्रार्थना की । शक्तिशाली व्याासजी सौ वर्षों तक केवल वायु करते हुए अनेक रूपधारी उमापति महादेव आराधना में लग रहे । वहाँ सम्पूरर्ण ब्रह्मार्षि,सभी राजर्षि, लोकपाल, बहुत-से अनुचरों के सहित साध्यए, आदित्यक, रूद्र, सूर्य, चन्द्रबमा, वसुगण, मरूद्गण, समुद्र, सरिताएँ, दोनों अश्विनीकुमार, देवता गन्धीर्व, नारद, पर्वत, गन्ध्र्वराज विश्वाीवसु, सिद्ध तथा अप्साराएँ भी लोकश्विर महादेव जी की आराधना करती थीं । वहाँ महान् रूद्रदेव कनेर पुष्‍पों की मनोहर माला धारण किये चाँदनी सहित चन्‍द्रमा के समान शोभा पाते थे । देवताओं तथा देवर्षियों से भरे हुए उस दिव्‍य रमणीय वन में पुत्र प्राप्ति के लिये परम योग का आश्रय ले मुनिवर व्‍यास तपस्‍या में प्रवृत्त थे और उससे विचलित नहीं होते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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