महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 327 श्लोक 1-19

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सप्तविंशत्यधिकत्रिशततम (327) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तविंशत्यधिकत्रिशततमअध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

शुकदेवजी का पिता के पास लौट आना तथा व्यासजी का अपने शिष्यों को स्वाध्याय की विधि बताना

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! राजा जनक की यह बात सुनकर विशुद्ध अन्तःकरण वाले शुकदेवजी एक दृढ़ निश्चय पर पहुँच गये और बुद्धि के द्वारा आत्मा में स्थित होकर स्वयं अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करे कृतज्ञ हो गये। एवं आनन्दमग्न हो, बड़ी शान्ति का अनुभव करते हुए हिमालय पर्वत को लक्ष्य करके वायु के समान वेग से चुपचाप उत्तर दिशा की ओर चल दिये। इसी प्रकार देवर्षि नारद सिद्धों और चारणों से सेवित हिमालय पर्वत पर उसका दर्शन करने के लिये आये। उस पर्वत पर सब ओा अप्सराएँ विचर रही थीं। चारों ओर विविध प्राणियों की शानितमयी ध्वनि से वहाँ का सारा प्रान्त व्याप्त हो रहा था। सहस्त्रों किन्नर, भ्रमर, मद्गु, विचित्र खंजरीट, चकोर, सैंकड़ों मधुर वााणी से सुशोभित विचित्र वर्णवाले मयूर, राजहंसों के समुदाय तथाा काले कोकिल वहाँ शान्त मधुर ध्वनि फैला रहे थे। पक्षिराज गरुड़ उस पर्वत पर नित्य विराजमान होते हैं। चारों लोकपाल, देवता तािा ऋषिगण सम्पूर्ण जगत् के हित की कामना से वहाँ सदा आते रहते हैं। वहीं महात्मा श्रीविष्णु (श्रीकृष्ण) ने पुत्र के लिये तप किया था। वहीं कुमार कार्तिकेय ने बाल्यावस्था में देवताओं पर आक्षेप किया था और त्रिलोकी का अपमान करके पृथ्वी में अपनी शक्ति गाड़ दी थी। उस समय वहाँ स्कन्द ने सम्पूर्ण जगत् पर आक्षेप करते हुए यह बात कही थी- ‘जो कोई भी दूसरा पुरुष मुझसे अधिक बलवान् हो, जिसे ब्राह्मण अधिक प्रिय हों, जो दूसरा व्यक्ति मुझसे भी अधिक ब्राह्मणभक्त तथा तीनों लाकों में पराक्रमशाली हो, वह इस शक्ति को उखाड़ दे अथवा हिला दे’। उनकी यह तिरस्कारपूर्ण घोषणा सुनकर सब लोग व्यथित हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे, ‘भला, कौन वीर उस शक्ति को उखाड़ सकता है ?’ उस समय भगवान् विष्णु ने देखा कि सम्पूर्ण देवताओं की इन्द्रियाँ और चित्त भय से व्याकुल हें तथा असुर और राक्षसों-सहित सम्पूर्ण जगत् पर स्कन्ध द्वारा आक्षेप किया गया है। यह देखकर वे सोचने लगे कि यहाँ क्या करना अच्छा होगा ? तब उस आक्षेप को सहन न करके विशुद्धात्मा भगवान् विष्णु ने अग्निकुमार सकन्द की ओर देखा। फिर उन पुरुषोत्तम ने उस समय उस प्रज्वलित शक्ति को बायें हाथ से पकड़कर हिला दिया। बलवान् भगवान् विष्णु के द्वारा उस शक्ति के कम्पित किये जाने पर पर्वत, वन और काननों सहित सारी पृथ्वी काँप उठी। यद्यपि प्रभावशाली भगवान् विष्णु उसे उखाड़ फेंकने में समर्थ थे तो भी उन्होंने कुमार स्कन्द का तिरस्कार नहीं होने दिया। उन्हें अपमान से बचा लिया। उस शक्ति को हिलाकर भगवान् ने प्रह्लाद से कहा- ‘देखो, कुमार मे कितना बल है ? यह कार्य दूसरा कोई नहीं कर सकेगा’। भगवान् के इस कथन को सहन न कर सकने के कारण प्रह्लाद ने स्वयं ही उस शक्ति को उखाड़ फेंकने का निश्चय कर लिया और उस शक्ति को पकड़कर खींचा; परंतु वे उसे हिला भी न सके। हिरण्यकशिपु कुमार प्रह्लाद बड़े जोर से चिंघाड़कर मूच्र्छित एवं व्याकुल हो उस पर्वत शिखर की भूमि पर गिर पड़े।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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