महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 327 श्लोक 20-43
सप्तविंशत्यधिकत्रिशततम (327) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तात ! उसी गिरिराज हिमालय के पाश्र्वभाग में उत्तर दिशा की ओर जाकर भगवान् वृषध्वज शिव ने नित्य-निरन्तर दुर्धर्ष तपस्या की।भगवान् शंकर के उस आश्रम में प्रज्वलित अग्नि ने चारों ओर से घेर रक्खा है। उस पर्वतशिखर का नाम आदित्यगिरि है, जिसपर अजितात्मा पुरुष नहीं चढ़ सकते। यक्ष, राक्षस और दानवों के लिये वहाँ पहुँचना सर्वथा असम्भव है। वह दस योजन विस्तृत शिखर आग की लपटों से घिरा हुआ है। शक्तिशाली भगवान् अग्निदेव वहाँ स्वयं विराजमान हैं। परम बुद्धिमान् महादेवजी सहस्त्र दिव्य वर्षों तक वहाँ एक पैर से खड़े रहे और उनकी तपस्या के सम्पूर्ण विघ्नों का निवारण करते हुए अग्निदेव वहीं विराजमान थे। महान् व्रतधारी महादेवजी वहाँ देवताओं को संतप्त करते हुए महान् तप में प्रवृत्त थे।उसी बुद्धिमान गिरिराज हिमवान् की पूर्व दिशा का आश्रय लेकर पर्वत के एकान्त तटप्रानत मेें महातपस्वी महाबुद्धिमान् पराशरनन्दन व्यास अपने शिष्य महाभाग सुमनतु, महाबुद्धिमान् जैमिनि, तपस्वी पैल तथा वैशम्पायन- इन चार शिष्यो को वेद पढ़ा रहे थे। जहाँ महातपस्वी व्यास अपने शिष्यों से घिरे हुए बैइे थे, वहाँ शुकदेवजी ने अपने पिता के उस रमणीय एवं उत्तम आश्रम को देखा। उस समय विशुद्ध अनतःकरण वाले अरणीनन्दन शुकदेव आकाश में स्थित सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे थे, इतने में व्यासजी ने भी प्रज्वलित अग्नि तािा सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र को सब ओर अपनी आभा बिखेरते हुए आते देखा। योगमुक्त महात्मा शुकदेव धनुष की डोरी से छूअे हुए बाण के समान तीव्र गति से अस रहे थे। वे वृक्षों और पर्वतों में कहीं भी अटक नहीं पाते थे। निकट आकर अरणीपुत्र महामुनि शुकदेव ने पिता के दोनों पैर पकड़ लिये और शान्त भाव से उनके अनय सब शिष्यों के साथ भी मिले। तदनन्तर प्रसन्नचित हुए शुक ने राजा जनक के साथ जो वार्तालाप हुआ था, वह सारा-का-सारा वृत्तान्त अपने पिता से कह सुनाया। इस प्रकार शक्तिशाली महामुनि पराशरनन्दन व्यास अपने शिष्यों और पुत्र को पढ़ाते हुए हिमालय के शिखर पर ही रहने लगे। तदनन्तर किसी समय वेदाध्ययन से सम्पन्न, शान्तचित्, जितेन्द्रिय, सांगवेद में पारंगत और तपस्वी शिष्यगण गुरुवर व्यासजी को चारों ओर से घेरकर बैठ गये और उनसे हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले।
शिष्यों ने कहा- गुरुदेव ! हम आपकी कृपा से महान् तेजस्वी हो गये हैं। हमारा यश भी चारों ओर बढ़ गया है। अब इस समय हम यह चाहते हैं कि आप एक बार और हम लोागों पर अनुग्रह करें। शिष्यों की यह बात सुनकर ब्रह्मर्षि व्यास ने उनसे कहा- ‘बच्चों ! कहो, क्या चाहते हो ? मुझे तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करना है ?’ गुरुदेव का यह वचन सुनकर उन शिष्यों का हृदय हर्ष से खिल उठा। राजन् ! वे पूनः हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर गुरुजी को प्रणाम करके एक साथ यह उत्तम वचन बोले- ‘मुनिश्रेष्ठ ! आप हमारे उपाध्याय हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो हम धन्य हो गये। ‘हम सब लोग यह चाहते हैं कि महर्षि एक वरदान दें, वह यह कि आपका कोई छठा शिष्य प्रसिद्ध न हो। यहाँ हम लोागों पर इतनी ही कृपा कीजिये। ‘हम चार आपके शिष्य हैं और पंचम शिष्य गुरुपुत्र शुकदेव हैं। इन पाँचों में ही आपके पढ़ाये हुए सम्पूर्ण वेद प्रतिष्ठित हों; यही हमारे लिये मनावान्छित वर है’। शिष्यों की यह बात सुनकर वेदार्थ के तत्त्वज्ञ, पारलौकिक अर्थ का चिन्तन करने वाले, धर्मात्मा, पराशरनन्दन बुधिमान् व्यासजी ने अपने समस्त शिष्यों से यह धर्मानुकूल कल्याणकारी वचन कहा- ‘शिष्यगण ! जसे ब्रह्मलोक में अटल निवास चाहता हो, उसका कत्र्तव्य है कि वह पढ़ने की इच्छा से आये हुए ब्राह्मण को सदा ही वेद पढ़ावे।
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