महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 33 श्लोक 20-36
त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाबाहो ! तुम युद्ध में मारे गये उन क्ष्त्रियों के भी ऐसे कर्मों का चिन्तन करो जो उनके विनाश के कारण थे और जिनके होने से ही उन्हें काल के अधीन होना पड़ा।।
तुम अपने आचार-व्यवहार पर भी ध्यान दो कि ‘तुम सदा ही नियमपुर्वक उत्तम व्रत के पालन में लगे रहते थे तो भी विधाता ने बलपूर्वक तुम्हें अपने अधीन करके तुम्हारे द्वारा ऐसा निष्ठूर कर्म करवा लिया’। जैसे लोहार या बढ़ई का बनाया हुआ यन्त्र सदा उसके चालक के अधीन रहता है, उसी प्रकार यह सारा जबत् कालयुक्त कर्म की प्रेरणा से ही सचेष्ट हो रहा है।। प्राणी किसी व्यक्त कारण के बिना ही दैवात् उत्पनन होता है और दैवेच्छा से ही अकस्मात् उसका विनाश हो जाता है। यह सब देखकर शोक और हर्ष करना व्यर्थ है। राजन् ! तथापि तुम्हारे चित्त में जो यहाँ पीड़ा हो रही है, इसकी निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्त कर देना उचित है, अतः तुम अवश्य प्रायश्चित्त करो। पार्थ ! यह बात सुनी जाती है कि पूर्वकाल में देवासुर संग्राम के अवसर पर बड़े भाई असुर और छोटे भाई देवता आपस में लडत्र गये थे। उनमें भी राजलक्ष्मी के लिये ही बत्तीस हजार वर्षों तक बड़ा भारी संग्राम हुआ था।
देवताओं ने चाून से भीगी हुई इस पृथ्वी को एकार्णव मे निमग्न करके र्दत्यों का संहार कर डाला और स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। भारत ! इसी प्रकार पृृथ्वी को भी अपने अधीन करके देवताओं ने तीनों लोकों में शालावृक नाम से विख्यात उन अट्ठासी हजार ब्राह्मणों का भी वध कर डाला, जो वेदों के पारंगत विद्वान् थे और अभिमान से मोहित होकर दानवों की सहायता के लिये उनके पक्ष में जा मिले थे। जो धर्म का विनाश चाहते हुए अधर्म के प्रवर्तक हो रहे हों, उन दुरात्माओं का वध करना ही उचित है। जैसे देवताओं ने उद्दण्ड दैत्यों का विनाश कर डाला था।। यदि एक पुरुष को मार देने से कुटुम्ब के शेष व्यक्तियों का कष्ट दूर हो जाय और एक कुटुम्ब का नाश कर देने से सारे राष्ट्र में सुख और शान्ति छा जाय तो वैसा करना सदाचार या धर्म का नाशक नहीं है। नरेश्वर ! किसी समय धर्म ही अधर्म रूप हो जाता है और कहीं अधर्मरूप दीखने वाला कर्म ही धर्म बन जाता है; इसलिये विद्वान् पुरुष को धर्म और अधर्म का रहस्य अचछी तरह समझ लेना चाहिये। पाण्डुनन्दन ! तुम वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हो, तुमने श्रेष्ठ पुरुषों के उपदेश सुने हैं; इसलिये अपने हृदय को स्थिर करो, शोक से विचलित न होने दो। भारत ! तुमने तो उसी मार्ग का अनुसरण किया है, जिसपर देवता लोग पहले से चल चुके हैं। पाण्डवशिरोमणे ! तुम्हारे-जैसे लोग नरक में नहीं गिरेंगे। शत्रु संतापी नरेश ! तुम इन भाइयों और सुहृदों को आश्वासन दो। जो पुरुष हृदय में पाप की भावना रखकर किसी पापकर्म में प्रवृत्त होता है, उसे करते हुए भी उसी भावना से भावित रहता है तथा पापकर्म करने के पश्चात् भी लज्जित नहीं होता, उसमें वह सारा पाप पूर्णरूप से प्रतिष्ठित हो जाता है, ऐसा शास्त्र का कथन है। उसके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है तथा प्रायश्चित्त से भी उसके पाप कर्म का नाश नहीं होता है।
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