महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 33 श्लोक 37-48
त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तुम तो जनम से ही शुद्ध स्वभाव के हो। तुम्हारे मन में युद्ध की इच्छा बिलकुल नहीं थी। शत्रुओं के अपराध से ही तुम्हें इस कार्य में प्रवृत्त होना पड़ा। तुम यह युद्धकर्म करके भी निरन्तर पश्चात्ताप ही कर रहे हो। इसके लिये महान् यज्ञ अश्वमेध ही प्रायश्चित्त बताया गया है। महाराज ! तुम इस यज्ञ का अनुष्ठान करो। ऐसा करने से तुम पापरहित हो जाओगे। मरुद्गणों सहित भगवान् पाक शासन इन्द्र ने शत्रुओं को जीतकर एक-एक करके सौ बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। इससे वे ‘शतक्रतु’ नाम से विख्यात हो गये। दनके सारे पाप धुल गये। उन्होंने स्वर्ग पर विजय पायी और सुखदायक लोकों में पहुँचकर इन्द्र सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए मरुद्गणों के साथ शोभा पाने लगे। स्वर्गलोक में अप्सराओं द्वारा पूजित होने वाले शचीपति देवराज इन्द्र की सम्पूर्ण देवता और महर्षि भी उपासना करते हैं। अनघ ! तुमने भी इस वसुन्धरा को अपने पराक्रम से प्राप्त किया है और भुजाओं के बल से समसत राजाओं को परास्त किया है।
राजन् ! अब तुम अपने सुहृदों के साथ उनके देश और नगरों में जाकर उनके भाइयों, पुत्रों अथवा पौत्रों को अपने-अपने राज्य पर अभिषिक्त करो। जिनके उत्तराधिकारी अभी बालक हों या गर्भ में हों, उनकी प्रजा को समझा-बुझाकर सान्त्वना द्वारा शान्त करो और सारी प्रजा का मनोरंजन करते हुए इस पृथ्वी का पालन करो। जिन राजाओं के कोई पुत्र नहीं हो, उनकी कन्याओं को ही राज्य पर अभिषिक्त कर दो।
ऐसा करने से उनकी स्त्रियों की मनःकामना पूर्ण होगी और वे शोक त्याग देंगी। भारत ! इस प्रकार सारे राज्य में शांति स्थापित करके तुम उसी प्रकार अश्वमेध या का अनुष्ठान करो, जैसे पूर्वकाल में विजयी इन्द्र ने किया था। क्षत्रियशिरोमणे ! वे महामनस्वी क्षत्रिय, जो युद्ध में मारे गये हैं, शोक करने के योग्य नहीं है; क्योंकि वे काल की शक्ति से मोहित होकर अपने ही कर्मों से नष्ट हुए हैं। कुन्तीकुमार ! भरतनन्दन ! तुमने क्षत्रिय धर्म का पालन किया है और इस समय तुम्हें यह निष्कण्टक राज्य मिला है; अतः अब तुम उस धर्म की ही रक्षा करो, जो मृत्यु के पश्चात् सबका कल्याण करने वाला है।
« पीछे | आगे » |