महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-18
चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
जिन कर्मों के करने और न करने से कर्ता प्रायश्चित्त का भागी होता और नहीं होता - उनका विवेचन
युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह ! किन-किन कर्मों को करने से मनुष्य प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है और उनके लिये कौन सा प्रायश्चित्त करके वह पाप से मुक्त होता है ? इस विषय में यह मुझे बताने की कृपा करें।।
व्यासजी बोले - राजन् ! जो मनूष्य शास्त्रविहित कर्मों का आचरण न करके निषिद्ध कर्म कर बैठता है, वह उस विपरीत आचरण के कारण प्रायश्चित्त का भागी होता है। जो ब्रह्मचारी सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय तक सोता रहे तथा जिसके नख और दाँत काते हों, उन सबको प्रायश्चित्त करना चाहिये। कुनतीनन्दन ! इसके सिवा परिवेत्ता ( बड़े भाई के अविवाहित रहते हुए विवाह करने वाला छोटा भाई ), परिवित्ति ( परिवेत्ता का बड़ा भाई ), ब्रह्महत्यारा और जो दूसरों की निन्दा करने वाला है वह तथा छोटी बहिन के विवाह के बाद उसकी बड़ी बहिन से ब्याह करने वाला, जेठी बहिन के अविवाहित रहते हुए ही उसकी छोटी बहिन से विवाह करने वाला, जिसका व्रत नष्ट हो बया हो वह ब्रह्मचारी, द्विज की हत्या करने वाला, अपात्र को दान देने वाला, मांस बेचने वाला तथा जो आग लगाने वाला है, जो वेतन लेकर वेद पढ़ाने वाला एवं स्त्री और शूद्र का वध करने वाला है, इनमें पीछे वालों से पहले वाले अधिक पापी हैं तथा पशु-वध करने वाला, दूसरों के घर में आग लगाने वाला, झूठ बोलकर पेट पालने वाला, गुरु का अपमान और सदाचार की मर्यादा का उल्लंघन करने वाला- ये सभी पापी माने गये हैं। इन्हें प्रायश्चित्त करना चाहिये। इनके सिवा, जो लोक और वेद से विरुद्ध न करने योग्य कर्म हैं, उन्हें भी बताता हूँ।
तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो और समझो। भारत ! अपने धर्म को त्याग देना और दूसरे के धर्म का आचरण करना, यज्ञ के अनधिकारी को यज्ञ कराना तथा अभक्ष्य भक्षण करना, शरणागत का त्याग करना और भरण करने योग्य व्यक्तियो का भरण-पोषण न करना, एवं रसों को बेचना, पशु-पक्षियों को मारना और शक्ति रहते हुए भी अग्न्याधान आदि कर्मों को न करना, नित्य देने योग्य गोग्रास आदि को न देना, ब्राह्मणों को दक्षिणा न देना और उनका सर्वस्व छीन लेना, धर्मतत्त्व के जानने वालों ने ये सभी कर्म न करने योग्य बताये हैं।
राजन् ! जो पुरुष पिता के साथ झगड़ा करता है, गुरु की शय्या पर सोता है, ऋतुकाल में भी अपनी पत्नी के साथ समागम नहीं करता है, वह मनुष्य अधार्मिक होता है। इस प्रकार संक्षेप और विस्तार से जो ये कर्म बताये गये हैं, उनमें से कुछ को करने से और कुछ को न करने से मनुष्य प्रायश्चित्त का भागी होता है। अब जिन-जिन कारणों के होने पर इन कर्मों को करते रहने पर भी मनुष्य पाप से लिप्त नहीं होते, उनका वर्णन सुनो। यदि युद्धस्थल में वेदवेदान्तों का पारगामी विद्वान् ब्राह्मण भी हाथ में हथियार लेकर मारने के लिये आवे तो स्वयं भी उसको मार डालने की चेष्टा करें। इससे ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगता है। कुन्तीनन्दन ! इस विषय में वेद का एक मन्त्र भी पढ़ा जाता है। मैं तुमसे उसी धर्म की बात कहता हूँ, जो वैदिक प्रमाण से विहित है।
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