महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 26-33
द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जिस समय रुद्र ने त्रिपुरवासी दैत्यों के वध के लिये दीक्षा ली थी, उस समय शुक्राचार्य ने अपने मसतक से जटाएँ उखाड़कर उन्हीं का महादेवजी पर प्रयोग किया। फिर तो उन जटाओं से बहुतेरे सर्प उत्पन्न हुए, जिन्होंने रुद्रदेव के कण्ठ में डँसना आरम्भ किया। इससे उनका कण्ठ नीला हो गया तथा पहले स्वायम्भुव मन्वन्तर में नारायण ने अपने हाथ से उनका कण्ठ पकड़ा था, इसलिये भी कण्ठ का रंग नीला हो जाने से वे रुद्रदेव नीलकण्ठ हो गये। अंगिरा पुत्र बृहस्पति ने अमृत उत्पन्न करने के समय नरश्चरण आरम्भ किया। उस समय जब वे आचमन करने लगे, तब जल स्वच्छ नहीं हुआ। इससे बृहस्पति जल के प्रति कुपित हो उठे और बोले - ‘मेरे आचमन करते समय भी तुम स्वच्छ न हुए, मैले ही बने रह गये; इसलिये आज से मत्स्य, मकर और कछुए आदि जन्तुओं द्वारा तुम कलुषित होते रहो।’ तभी से सारे जलाशय जल-जन्तुओं से भरे रहने लगे। त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप देवताओं के पुरोहित थे। वे असुरों के भानजे लगते थे; अतः देवताओं को प्रत्यक्ष और असुरों को परोक्ष रूप से यज्ञों का भाग दिया करते थे। कुछ काल के अनन्तर हिरण्यकशिपु को आगे करके सब असुर विश्वरूप की माता के पास गये और उनसे वर माँगने लगे - ‘बहिन ! यह तुम्हारा पुत्र विश्वरूप, जिसके तीन सिर हैं, देवताओं को पुरोहित बना हुआ है। यह देवताओं को तो प्रत्यक्ष भाग देता है और हम लोगों को परोक्ष रूप से भाग समर्पित करता है। इससे देवता तो बढ़ते हैं और हम लोग निरन्तर क्षीण होते चले जा रहे हैं। तुम इसे मना कर दो, जिससे यह देवताओं को छोड़कर हमारा पक्ष ग्रहण करे’। तब एक दिन माता ने नन्दनवन में गये हुए विश्वरूप से कहा - ‘बेटा ! क्यों तुम दूसरे पक्ष की वृद्धि करते हुए मामा के पक्ष का नाश कर रहे हो ? तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’ विश्वरूप ने माता की आज्ञा को अलंघनीय मानकर उनका सम्मान करके विदा कर दिया और वे स्वयं हिरण्यकशिपु के पास चले गये। ( हिरण्यकशिपु ने उन्हें अपना होता बना लिया) इधर ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठ की ओर से हिरण्यकशिपु को शाप प्राप्त हुआ- ‘तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरा होता चुन लिया है; इसलिये इस यज्ञ की समाप्ति होने सक पहले ही किसी अभूतपूर्व प्राणी के हाथ से तुम्हारा वध हो जायगा।।’ वसिष्ठजी के वैसा शाप देने से हिरण्यकशिपु वध को प्राप्त हुआ। तदनन्तर विश्वरूप मातृपक्ष की वृद्धि करने के लिये बड़ी भारी तपस्या में संलग्न हो गये। यह देख उनके व्रत को भंग करने के लिये इन्द्र ने बहु सी सुन्दरी अप्सराओं को नियुक्त कर दिया। उन अप्सराओं को देखते ही विश्वरूप का मन चंचल हो गया और वे तुरंत ही उनमें आसक्त हो गये। उन्हें आसक्त जानकर अप्सराओं ने कहा - ‘अब हम लोग जहाँ से आयी हैं, नहीं जा रही हैं’। तब त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ने उनसे कहा - ‘कहाँ जाओगी ? अभी यहीं मेरे साथ रहो। इससे तुम्हारा भला होगा।’ यह सुनकर वे अप्सराएँ बोलीं- ‘हम सब देवांगना-अप्सराएँ हैं। हमने पहले से ही वरदायक देवता प्रभावशाली इन्द्र का वरण कर लिया है’।
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