महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 35 श्लोक 19-32
पन्चस्त्रिंश (35) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
राजन्जो मदिरा पी लेने पर ईर्ष्या-द्वेष से रहित हो भूमिदान करे और फिर कभी उसे न पीये, वह संस्कार करने के पश्चात शुद्ध होता है। गुरुपत्नी गमन करने वाला मनुष्य तपायी हुई लोहे की शिला पर सो जाय अथवा अपनी मूत्रेन्द्रिय काटकर ऊपर की ओर देखता हुआ आगे बढता चला जाय । इस प्रकार शरीर छूट जाने पर वह उस पाप कर्म से मुक्त हो जाता है। स्त्रियां भी एक वर्ष तक मिताहार एवं संयमपूर्वक रहने पर उक्त पाप कर्मों से मुक्त हो जाती है जो महाव्रत का ( एक महीने तक जल न पीने के नियम का) का पालन करत है ब्राह्माणों को अपना सर्वस्व समर्पितकर देता है अथवा गुरु के लिये युद्ध में मारा जाता है, वह अशुभ् कमै के बन्धन से मुक्त हो जाता है। झूठ बोलकर जीविका चलाने वाला तथा गुरु को अपमान करने वाला पुरुष गुरुजी को मनचाही वस्तु देकर प्रसन्न कर ले ता उस पाप से मुक्त हो जाता है ।जिसका ब्रह्मचर्य व्रत खण्डित हो गया हो, वह ब्रह्मचारी उस दोष की निवृति के उदेश्य से ब्रह्म हत्या के लिये बताये हुए व्रत का आचरण करे तथा छ महीनों तक गोचर्म ओढकर रहे ऐसा करने पर वह पाप से मुक्त हो सकता है।
परायी स्त्री तथा पराए धन का अपहरण करने वाला पुरुष एक वर्ष तक कठोर व्रत का पालन करने पर उस पाप से मुक्त हो जाता है । जिसके धन का अपहरण करे उसे अनेक उपाय करके उतना ही धन लौटा दे जो उस पाप से छुटकारा मिल सकता है । बडे़ भाई के रहते हुए विवाह करने वाला छोटा भाई और उसका बड़ा भाई ये दोनो मन को संयम में रखते हुए बारह रात तक कृच्छ व्रत का अनुष्ठान करने से शुद्ध हो जाते है । इसके सिवा बडे़ भाई के विवाह होने के बाद पहले का व्याहा हुआ छोटा भाई पित्रों के उद्धार के निमित्त पुन विवाह संस्कार करे ऐसा करने से उस स्त्री के कारण उसे दोष नहीं प्राप्त होता और न वह स्त्री ही उसके दोष से लिप्त होती है। चोमासे मे एक दिन के अंतर देके भोजन करने का विधान है उस के पालन से स्त्रियाँ शुद्ध हो जाती है ऐसा धर्मज्ञ पुरुषों का कथन है। यदि अपनी स्त्री के विषय मे पापा चार की आशंका हो तो विज्ञ पुरुष को रजस्वला होने तक उनके साथ साथ समागम नहीँ करना चाहिए रजस्वला होने पर वे उसी प्रकार शुद्ध हो जाती है जैसे राख से माँजा हुआ बर्तन । यदि कांसे का बर्तन शुद्र के द्वारा झूठा कर दिया जाए अथवा उसे गाय सूंघले अथवा किसी के भी कुल्ला करने से जुठा हो जाए ता वह दस वस्तुओं से शोधन करने पर शुद्ध होता है। ब्रह्ममन के लिए चारों पादों से युक्त संपूर्ण धर्म के पालन का विधान है तात्पर्य यह कि वह शैचाचार या आत्मशुद्धि के लिये किये जाने वाल प्रायश्चित का पूरा पूरा पालन करे। शत्रिय के लिए एक पाद कम का विधान है इसी तरह वैश्य के लिए उसके दो पाद पालन की विधि है उदाहरण के तौर पर जहां ब्राह्माण के लिये चार दिन उपवास का विधान हो वहां क्षत्रिय के लिये तीन दिन, वैश्य के लिये दो दिन और शुद्ध के लिये एक दिन के उपवास का विधान समझना चाहिये) ।
« पीछे | आगे » |