महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 363 श्लोक 1-6
त्रिषष्ट्यधिकत्रिशततम (363) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उन्छ एवं शिलवृत्ति से सिद्ध हुए पुरुष की दिव्य गति
सूर्य ने कहा- ये न तो वायु के सखा अग्निदेव थे, न कोई असुर थे और न नाग ही थे। ये उन्छवृत्ति से जीवननिर्वाह के व्रत का पालन करने से सिद्धि को प्रापत हुए मुनि थे, जो दिव्यधाम में आ पहुँचे है। ये ब्राह्मणदेवता फल-मूल का आहार करते, सूखे पत्ते चबाते अथवा पानी या हवा पीकर रह जाते थे और सदा एकाग्रचित्त होकर ध्यानमग्न रहते थे। इन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने संहिता के मन्त्रों द्वारा भगवान शंकर का स्तवन किया था। इन्होंने स्वर्गलोक पाने की साधना की थी, इसलिये ये स्वर्ग में गये हैं। नागराज ! ये ब्राह्मण असंग रहकर लौकिक कामनाओं का त्याग कर चुके थे और सदा उन्छ [१] एवं शिलवृत्ति से प्राप्त हुए अनन को ही खाते थे। ये निरन्तर समस्त प्राणियों के हितसाधन में संलग्न रहते थे। ऐसे लोगों को जो उत्तम गति प्राप्त होती है, उसे न देवता, न गन्धर्व, न असुर और न नाग ही पा सकते हैं। विप्रवर ! सुर्यमण्डल में मुझे यह ऐसा ही आश्चर्य दिखायी दिया था कि उन्छवृत्ति से सिद्ध हुआ वह मनुष्य इच्छानुसार सिद्ध-गति को प्राप्त हुआ। ब्रह्मन् ! अब वह सूर्य के साथ रहकर समूची पृथ्वी की परिक्रमा करता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उञ्छ कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलम् कटे हुए खेत से वहाँ गिरे हुए अन्न के दाने बीनकर लाना अथवा बाजार उठ जाने पर वहाँ बिखरे हुए अनाज के एक-एक दाने को बीन लाना कहलाता है। इसी तरह धान, गेहूँ और जौ आदि की बाल बीलकर ‘शिल‘ कहा गया है।