महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 364 श्लोक 1-10
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चतुःषष्ट्यधिकत्रिशततम (365) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
ब्राह्मण का नागराज से बातचीत करके और उन्छव्रत के पालन का निश्चय करके अपने घर को जाने के लिये नागराज से विदा माँगना
ब्राह्मण ने कहा- नागराज ! इसमें संदेह नहीं कि यह एक आश्चर्यजनक वृत्तान्त है। इसे सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरे मन में जो अभिलाषा थी, उसके अनुकूल वचन कहकर आपने मुझेरास्ता दिखा दिया। भुजंग शिरोमणि ! आपका कल्याण हो। अब मैं यहाँ से चला जाऊँगा, यदि आपको मुझे कहीं भेजना हो या किसी काम में नियुक्त करना हो तो ऐसे अवसरों पर मेरा अवश्य स्मरण करना चाहिये।
नाग ने कहा - विप्रवर ! आपने अभी अपने मन की बात तो बतायी नहीं, फिर इस समय आप कहाँ चले जा रहे हैं ? उसे बताइये तो सही। उत्तम व्रत का पालन करने वाले द्विजश्रेष्ठ ! आप कहें या न कहें। मेरे द्वारा जब आपका कार्य सम्पन्न हो जाय, तब आप मुझसे पूछकर, मेरी अनुमति लेकर अपने घर को जाइयेगा। ब्रह्मर्षे ! आपका मुझमें प्रेम है; इसलिये वृक्ष के नीचे बैइे हुए बटोही की तरह केवल मुझे देखकर ही चल देना आपके लिये उचित नहीं है। विप्रवर ! आपसे में हूँ और मुझसे आप हैं, इसमें संशय नहीं है। निष्पाप ब्राह्मण ! यह समसत लोक आपका ही है। मेरे रहते हुए आपको किस बात की चिन्ता है ?
ब्राह्मण ने कहा- महाप्रज्ञ आत्मज्ञानी नोगराज ! यह इसी प्रकार है। देवता भी आपसे बढ़कर नहीं हैं। यह बात सर्वथा यथार्थ है। (आपसे सूर्यमण्डल में जिन पुरुषोत्तम नारायणदेव की स्थिति बतायी है) मैं, आप तथा समस्त प्राणी सदा जिसमें स्थित हैं वही आप हैं, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही आप भी हैं। नागराज ! मुझे पुध्यसंग्रह के विषय में संशय हो गया था। मैं यह निश्चय नहीं कर पाता था कि किस साधन को अपनाऊँ , किंतु अब वह संदेह दूर हो गया है। साधो ! अब मैं अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये उन्छव्रत का ही आचरण करूँगा। महात्मन् ! यही मेरा निश्चय है। आपके द्वारा मेरा कार्य बड़े उत्तम ढंग से सम्पन्न हो गया। भुजंगम ! मैं कृतार्थ हो गया। आपका कल्याण हो। अब मैं जाने की आज्ञा चाहता हूँ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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