महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-14

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सप्ततितम (70) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
राजा को इहलोक और परलोक में सुख की प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुणों का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- आचार के ज्ञाता पितामह! किस प्रकार का आचरण करने से राजा इहलोक और परलोक में भी भविष्य में सुख देने वाले पदार्थों का सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। भीष्मजी ने कहा- राजन! दया और उदारता आदि गुणों से युक्त राजा जिन गुणों का आचरण में लाकर राजा को चाहिये कि वह इन छत्तीस गुणों से सम्पन्न होने की चेष्टा करे। अब मैं क्रमश उन गुणों का वर्णन करता हूं- 1- धर्म का आचरण करे, किंतु कटुता न आने दे। 2- आस्तिक रहते हुए दूसरो के साथ प्रेम का बर्ताव न छोडे। 3- क्रूरता का आश्रय लिये बिना ही अर्थ-संग्रह करे। 4- मर्यादा का अतिक्रमण न करते हुए ही विषयों को भोगे। 5- दीनता न लाते हुए ही प्रिय भाषण करे। 6- शूरवीर बने, किंतु बढ-बढकर बातें न बनावे। 7- दान दें, परंतु अपात्र को नहीं। 8- साहसी हो, किंतु निष्ठुर न हो। 9-दुष्टों के साथ मेल न करे। 10- बन्धुओं के साथ लडाई -झगडा न ठाने। 11- जो राजभक्त न हो, ऐसे गुप्तचर से काम न ले। 12- किसी को कष्ट पहुँचाये बिना ही अपना कार्य करे। 13- दुष्टों से अपना अभीष्ट कार्य न कहे। 14- अपने गुणों का स्वयं ही वर्णन न करे। 15- श्रेष्ठ पुरूषों से उनका धन न छीने। 16- नीच पुरूषों का आश्रय न ले। 17- अपराध की अच्छी तरह जाँच पडताल किये बिना ही किसी को दण्ड न दे। 18- गुप्त मन्त्रणा को प्रकट न करे। 19- लोभियों को धन न दे। 20- जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उन पर विश्वास न करे। 21- ईष्र्यारहित होकर अपनी स्त्री की रक्षा करे। 22- राजा शुद्ध रहे; किंतु किसी से घृणा न करे। 23- स्त्रियों का अधिक सेवन न करे। 24- शुद्ध और स्वादिष्ट भोजन करे, परंतु अहितकर भोजन न करे। 25- उदण्डता छोडकर विनीतभाव से माननीय पुरूषों का आदर सत्कार करे। 26- निष्कपटभाव से गुरूजनों की सेवा करे। 27- दम्भहीन होकर देवताओं की पूजा करे। 28- अनिन्दित उपाय से धन-समपत्ति पाने की इच्छा करे। 29- हठ छोडकर प्रीति का पालन करे। 30- कार्य कुशल हो, किंतु अवसर के ज्ञान से शून्य न हो। 31- केवल पिण्ड छुडाने के लिये किसी को सान्त्वना या भरोसा न दे। 32- किसी पर कृपा करते समय आक्षेप न करे। 33- बिना जाने किसी पर प्रहार न करे। 34- शत्रुओं को मारकर शोक न करे। 35- अकस्मात किसी पर क्रोध न करे तथा 36- कोमल हो, परंतु अपकार करने वालों के लिये नहीं। युधिष्ठिर- यदि इस लोक में कल्याण चाहते हो तो राज्यपर स्थित रहकर ऐसा ही बर्ताव करो; क्योंकि इसके विपरीत आचरण करने वाला राजा बडी भारी विपत्ति या भय में पड जाता है। जो राजा यथार्थरूप से बताये गये इन सभी गुणों का अनुवर्तन करता है, वह इस जगत में कल्याण का अनुभव करके मृत्यु के पश्चात स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म का यह उपदेश सुनकर पाण्डवों से और प्रधान राजाओं से घिरे हुए बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर ने उन्हें प्रणाम किया और जैसा बताया था, वैसा ही किया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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