महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-16

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एकसप्ततितम (71) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्ततिम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
धर्मपूर्वक प्रजा का पालन ही राजा का महान धर्म है, इसका प्रतिपादन

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! किस प्रकार प्रजा का पालन करने वाला राजा चिन्ता में नहीं पडता और धर्म के विषय में अपराधी नहीं होता, यह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- राजन् मैं संक्षेप से ही तुम्हारे लिये सनातन राजधर्मों का वर्णन करूंगा। विस्तार से वर्णन आरम्भ करूँ तो उन धर्मों का कभी अन्त ही नहीं हो सकता। जब घर पर वेदव्रतपरायण, शास्त्रज्ञ एवं धर्मिष्ठ गुणवान ब्राह्मण पधारें, उस समय उन्हें देखते ही खडे हो उनका स्वागत करो। उनके चरण पकडकर पकडकर प्रणाम करो और उनकी विधिपूर्वक अर्चन करके पूजा करो। तदनन्तर पुरोहित को साथ लेकर समस्त आवश्यक कार्य सम्पन्न करो। पहले संध्या वन्दन आदि धार्मिक कृत्य पूर्ण करके मांगलिक वस्तुओं का दर्शन करने के पश्चात ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराओ और अर्थसिद्धि एवं विजय के लिये उनके आर्शीवाद ग्रहण करो। भरतनन्दन! राजा को चाहिये कि वह सरल स्वभाव से सम्पन्न हो, धैर्य तथा बुद्धि के बल से सत्य को ही ग्रहण करे और काम क्रोध का परित्याग कर दे। जो राजा काम और क्रोध का आश्रय लेकर धन पैदा करना चाहता है वह मुर्ख न तो धर्म को पाता है और न धन ही उसके हाथ लगता है। तुम लोभी और मूर्ख मनुष्यों को काम और अर्थ के साधन में न लगाआ। जो लोभरहित और बुद्धिमान हों, उन्हीं को समस्त कार्यी में नियुक्त करना चाहिये। जो कार्य साधन में कुशल नहीं है और काम तथा क्रोध के वश में पडा़ है, ऐसे मूर्ख मनुष्य को यदि अर्थ संग्रह का अधिकारी बना दिया तो वह अनुचित उपाय से प्रजाओं को क्लेश पहुंचाता है। प्रचा की आयका छठा भाग करके रूप में ग्रहण करके; उचित शुल्क या टैक्स लेकर, अपराधियों को आर्थिक दण्ड देकर तथा शास्त्र के अनुसार व्यापारियों की रक्षा आदि करने के कारण उनके दिये हुए वेतन लेकर इन्हीं उपायों तथा मार्गी से राजा को धन- संग्रह की इच्छा रखनी चाहिये। प्रजा से धर्मानुकूल कर ग्रहण करके राज्य का नीती के अनुसार विधिपूर्वक पालन करते हुए राजाको आलस्य छोड़कर प्रजावर्ग के योगक्षेम की व्यवस्था करनी चाहिये। जो राजा आलस्य छोड़कर राग- द्धेष से रहित हो सदा प्रजाकी रक्षा करता है, दान देता है तथा निरन्तर धर्म एंव न्याय में तत्पर रहता है, उसके प्रति प्रजावर्ग के सभी लोग अनुरक्त होते हैं। राजन्! तुम लोभवश अधर्म मार्ग से धन पाने की कभी इच्छा न करना क्योंकि जो लोग शस्त्र के अनुसार नहीं चलते हैं, उनमे धर्म और अर्थ दोनों ही अस्थिर एवं अनिश्चित होते हैं। शास्त्र विपरीत चलने वाला राजा न तो धर्म की सिद्धि कर पाता है और न अर्थकी ही। यदि उसे धन मिल भी जाय तो वह सारा ही बुरे कामों म नष्ट हो जाता है। जो धन का लोभी राजा मोहवश प्रजा से शास्त्र विरूद्ध अधिक कर लेकर उसे कष्ट पहुँचाता है, वह अपने ही हाथों अपना विनाश करता है। जैसे दुध चाहने वाला मनुष्य यदि गाय का धन काट ले तो इससे वह दुध नहीं पा सकता, उसी प्रकार राज्य में रहने में रहने वाली प्रजाका उन्नति नहीं होती।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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