महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 71 श्लोक 17-33

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एकसप्ततितम (71) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद

जो दुध देने वाली गाय की प्रतिदिन सेवा करता है, वही दुध पाता है; इसी प्रकार उचित उपाय से राष्ट्र को सुरक्षित रखते हुए उसका उपभोग किया जाय अर्थात् करके रूप में उससे धन लिया जाय तो वह सदा राजा के कोश की अनुपम वृद्धि करता है। जैसे माता स्वयं तृप्त रहने पर ही बालक को यथेष्ट दुध पिलाती है, उसी प्रकार राजा से सुरक्षित होने पर ही यह दुधारू गाय के समान पृथ्वी राजा के स्वजनों तथा दुसरे लोगों को सदा अन्न एवं सुवर्ण देती हैं। युधिष्ठिर! तुम माली के समान बनो। कोयला बनाने वाले के समान न बनो ( माली वृक्ष की जड़को सींचता और उसकी रक्षा करता है, तब उससे फल और फुल ग्रहण करता है, परंतु कोयला बनाने वाला वृृक्ष को समूल नष्ट कर देता है; उसी प्रकार तुम भी माली बनकर राज्य रूपी उद्यान को सींचकर सुरक्षित रखो और फल- फलकी तरह प्रजासे न्यायोचित कर लेते रहो, कोयला बनाने वाले की तरह सारे राज्य को जलाकर भस्म न करो), ऐसा करके प्रजापालन में तत्पर रहकर तुम दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग कर सकोगे। यदि शत्रुओं के आक्रमण से तुम्हारे धन का नाश हो जाय तो भी सान्तवनापूर्व मधुर वाणी द्वारा ही ब्राह्मणेतर प्रजा से धन लेने की इच्छा रखो। भरतनन्दन! धनसम्पन्न अवस्था की तो बात ही क्या है? तुम अत्यन्त निर्धन अवस्था में पड जाओ तो भी ब्राह्मण को धनी देखकर उसका धन लेने के लिये तुम्हारा मन चन्चल नहीं होना चाहिये। राजन्! तुम ब्राह्मणों को सान्त्वना देते और उनकी रक्षा करते हुए उन्हें यथाशक्ति धन देते रहना, इससे तुम्हें दुर्जय स्वर्गलोक की प्राप्ति होगी। कुरूनन्दन! इस प्रकार तुम धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए प्रजाजनों का पालन करो। इससे परिणाम में सुखद पुण्य तथा चिरस्थायी यश प्राप्त कर लोगे। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! तुम धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए प्रजा का पालन करते रहो, जिससे युक्त रहकर तुम्हें कभी भी चिन्ता या पाश्चाताप न हो। राजा जो प्रजा की रक्षा करता है, यही उसका सबसे बडा धर्म है। समस्त प्राणियों की रक्षा तथा उनके प्रति परम दया ही महान धर्म है। इसलिये जो राजा प्रजापालन में तत्पर रहकर प्राणियों पर दया करता है, उसके इस बर्ताव का धर्मज्ञ पुरूष परम धर्म मानते है। राजा प्रजा की भय से रक्षा न करने के कारण राजा एक दिन में जिस धर्म का भागी होती है, उसका परिणाम उसे एक हजार वर्षों तक भोगना पडता हैं। और प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करने के कारण राजा एक दिन में जिस धर्म का भागी होता है, उसका फल वह दस हजार वर्षों तक स्वर्गलोक में रहकर भोगता है। उत्तम यज्ञ के द्वारा गृहस्थ धर्म का , उत्तम स्वाध्याय के द्वारा ब्रह्मचर्य का तथा श्रेष्ठ तप के द्वारा वाानप्रस्थ धर्म का पालन करने वाला पुरूष जितने पुण्यलोकों पर अधिकार प्राप्त करता है, धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने वाला राजा उन्हें क्षणभर में पा लेता है। कुन्तीनन्दन! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक धर्म का पालन करो। इससे पुण्य का फल पाकर तुम कभी चिन्ता में नहीं पडोगे। पाण्डुनन्दन! धर्मपालन करने से स्वर्गलोक में तुम्हें बडी भारी सुख-सम्पत्ति प्राप्त होगी। जो राजा नहीं है, उन्हें ऐसे धर्मों का लाभ मिलना असम्भव है। इसलिये धर्मात्मा राजा ही ऐसे धर्म का फल पाता है, दूसरा नहीं। तुम धैर्यवान तो हो ही। यह राज्य पाकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो। यज्ञ में सोमरसद्वारा इन्द्र को तृप्त करो और मनोवांछित वस्तु प्रदान करके सुहद्यों को संतुष्ट करो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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