महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 85 श्लोक 1-14
पन्चाशीतिम (85) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- राजा की व्यावहारिक नीति, मन्त्रिमण्डल का संघटन, दण्ड का औचित्य तथा दूत, द्वारपाल, शिरोरक्षक, मन्त्री और सेनापति के गुण
युधिष्ठिर ने पूछा- राजेन्द्र ! इस जगत् में राजा किस प्रकार धर्म विशेष के द्वारा प्रजा का पालन करे, जिसको वह लोगों का प्रेम और अक्षय कीर्ति प्राप्त कर सके? भीष्म जी ने कहा - राजन् जो राजा बाहर- भीतर से पवित्र रहकर शुद्ध व्यवहार से प्रजा पालन में तत्पर रहता है, वह धर्म और कीर्ति प्राप्त करके इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लेता है। युधिष्ठिर ने पूछा-महामते! राजा को किस-किस प्रकार के लोगों से किस-किस प्रकार का बर्ताव काम में लाना चाहिये? मेरे इस प्रश्न का आप यथावत्रूप से समाधान करें। मेरी तो ऐसी मान्यता है कि पहले आपने पुरूष के लिये जिन गुणों का वर्णन किया है, वे सब किसी एक पुरूष में नहीं मिल सकते। भीष्म जी ने कहा -महाप्राज्ञ! परम बुद्धिमान युधिष्ठिर! तुम जैसा कहते हो, वह ठीक ऐसा ही है। वस्तुतः इन सभी शुभ गुणों से सम्पत्र किसी एक पुरूष का मिलना कठिन है। इसलिये तुम जिस भाव से जैसे मन्त्रियों को संगठित करोगे अर्थात् करना चाहते हो, उनका दुर्लभ शील- स्वभाव जैसा होना चाहिये- इस बात को मैं प्रयत्नपूर्वक संक्षेप से बताऊँगा। राजा को चाहिये कि जो वेदविद्या के विद्वान्, निर्भीक, बाहर-भीतर से शुद्ध एवं स्नातक हों, ऐसे चार ब्राह्यण, शरीर से बलवान् तथा शस्त्रधारी आठ क्षत्रिय, धन-धान्य से सम्पन्न इक्कीस वैश्य, पवित्र आचार-विचार वाले तीन विनयशील शूद्र तथा आठ[१] गुणों से युक्त एवं पुराणविद्या को जानने वाला एक सूत जाति का मनुष्य-इन सब लोगों का एक मन्त्रिमण्ड़ल बनावे। उस सूत की अवस्था लगभग पचास वर्षं की हो और वह निर्भीक, दोषदृष्टि से रहित, श्रुतियों और स्मृतियों के ज्ञान से सम्पन्न, विनयशील, समदर्शी, वादी-प्रतिवादी के मामलों का निपटारा करनें में समर्थं, लोभरहित और अत्यन्त भयंकर सात[२] प्रकार के दुव्र्यसनों से बहुत दूर रहनेवाला हो। ऐसे आठ मन्त्रियों के बीच में राजा गुप्त मन्त्रणा करें। इन सबकी राय से जो बात निश्चित हो, उसकों देश में प्रचारित करे और राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को इसका ज्ञान करा दे। युधिष्ठिर ! इस प्रकार के व्यवहार से तुम्हे सदा प्रजावर्ग की देख-रेख करनी चाहियें। राजन्! तुमको किसी का कोई गुप्त धन ग्रहण नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह तुम्हारे कर्तव्य-न्याय धर्मं का नाश हुआ हो तो वह अधर्मं तुम्हें और तुम्हारे मन्त्रियों को बड़े कष्ट में डाल देगा। फिर तो तुम्हें अन्यायी मानकर राष्ट्र की सारी प्रजा तुमसे उसी प्रकार दूर भागेगी, जैसे बाज पक्षी के डर से दूसरे पक्षी भागते हैं तथा जैसे टूटी नाव समुद्र में कहाँ की कहाँ बह जाती हैं, उसी प्रकार प्रजा धीरे-धीरे तुम्हारा राज्य छोड़कर अन्यत्र चली जायेगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ .सेवा करने को सदा तैयार रहना, कही हुई बात को ध्यान से सुनना, उसे ठीक-ठीक समझना, याद रखना, किस कार्य का कैसा परिणाम होगा-इस पर तर्क करना, यदि अमुक प्रकार से कार्य सिद्ध न हुआ तो क्या करना चाहिये?-इस तरह वितर्क करना, शिल्प और व्यवहार की जानकारी रखना और तत्त्व का बोध होना-ये आठ गुण पौराणिक सूत में होने चाहिये।
- ↑ शिकार, जुआ, परस्त्री प्रसंग और मदिरापान-ये चार कामजनित दोष और मारना, गाली बकना तथा दूसरे की चीज खराब कर देना-ये तीन क्रोधजनित दोष मिलकर सात दुव्र्यसन माने गये हैं।