महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 98 श्लोक 11-12
अष्टनवतितम (98) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
इन्द्रदेव! इसने न तो बडे़ -बडे़ यज्ञ किये और न विधिपूर्वक ब्राह्नाणों को ही तृप्त किया वही यह सुदेव आज मुझको लाँघकर उपर -उपर से कैसे जा रहा है इसे ऐसा ऐश्वर्य कहाँ से प्राप्त हो गया जो सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। इन्द्र ने कहा - पृथ्वी नाथ ! नरेश्वर ! पूर्व काल में जब आप धर्म के अनुसार भली -भाँति इस पृथ्वी का पालन कर रहे थे उस समय सुदेव ने जो पराक्रम किया था उसे आपने प्रत्यक्ष देखा था। महीपाल ! उन दिनों आपके तीन शत्रु थे संयम वियम और महाबली सुयम वे सब के सब आपका अहित करने वाले थे वे शतश्रृंग नामक राक्षस के पुत्र थे लोकों में किसी के लिये भी उन तीनों रणदुर्मद राक्षसों पर विजय पाना कठिन था सुदेव ने उन सबको परास्त कर दिया था। एक समय जब आप देवताओं के हित की इच्छा से शुभ मुहूर्त में अश्वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे उन्हीं दिनों आपके उस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये वे तीनों राक्षस वहाँ आ पहुँचे। उन्होने सौ करोड़ राक्षसों की विशाल सेना साथ लेकर आक्रमण किया और आपकी समस्त प्रजाओं को पकड़कर बंदी बना लिया उस समय आपकी समस्त प्रजाओं को पकड़कर बंदी बना लिया उस समय आपकी समस्त प्रजा और सारे सैनिक व्याकुल हो उठे थे। उन दिनों सेनापति के विरूद्ध मन्त्री की बात सुनकर आपने सेनापति सुदेव को अधिकार से वंचित करके सब कार्यों से अलग कर दिया था। पृथ्वीनाथ! नरेश्वर !फिर उन्हीं मन्त्रियों की कपट पूर्ण बात सुनकर आपने उन दुर्जय राक्षसों के वध के लिये सेनासहित सुदेव को युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी ।और जाते समय यह कहा -राक्षसों की सेना को पराजित करके उनके कैद में पड़ी र्हुइ प्रजा और सैनिकों का उद्धार किये बिना तुम यहाँ लौटकर मत आना। नरेश्वर! आपकी वह बात सुनकर सुदेवे ने तुरन्त ही प्रस्थान किया और वह उस स्थान पर गया जहाँ आपकी प्रजा बंदी बना ली गयी थी उसने वहाँ राक्षसों की महाभयंकर विशाल सेना देखी। उसे देखकर सेनापति सुदेव ने सोचा कि यह विशाल वाहिनी तो इन्द्र आदि देवताओं तथा असुरों से भी नहीें जीती जा सकती महाराज अम्बरीष दिव्य अस्त्र एंव दिव्य बल से सम्पन है परन्तु वे इस सेना के सोलहवें भाग का भी संहार करने में समर्थ नहीं है। जब उनकी यह दशा हैं, तब मेरे जैसा साधारण सैनिक इस सेना पर कैसे विजय पा सकता है? राजन्! यह सोचकर सुदेवने फिर सारी सेनाको वहीं वापस भेज दिया , जहाँ आप उन समस्त कपटी मन्त्रियों के साथ विराजमान थे। तदनन्तर सुदेव ने श्मशानवासी महादेव जगदीश्वर रूद्रदेव की शरण ली और उन भगवान वृषभध्वज का स्तवन किया। स्तुति करके वह हाथ में लेकर अपना सिर काटने को उधत हो गया । तब देवाधिदेव महादेव ने करूणावश सुदेव का वह खड्गसहित दाहिना हाथ पकड़ लिया और उसकी और स्नेहपूर्वक देखकर इस प्रकार कहा। रूद्र बोले -पुत्र ! तुम ऐसा साहस क्यों करना चाहते हो। मुझसे कहो। पृथ्वीपर मस्तक रखकर प्रणाम किया और इस कहा -‘भगवन् ! सुरेश्वर ! मैं इस राक्षस सेना को युद्ध में नहीं जीत सकता; इसलिये इस जीवन को त्याग देना चाहता हूँ। महादेव ! जगत्पते ! आप मुझ आर्तको शरण दें । मन्त्रियों सहित महाराज अम्बरीष मुझ पर कुपित हुए बैठे है। उन्होंने स्पष्टरूप् से आज्ञा दी है कि इस सेना को पराजित किये बिना तुम लौटकर न आना।‘ तब महादेवजी ने पृथ्वी पर नीचे मुख किये पड़े हुए महामना सुदेव से समस्त प्राणियों के हित की कामना से कुछ कहने की इच्छा की। पहले उन्होंने गुण और शरीरसहित धनुर्वेदको बुलाकर रथ, हाथी और घोड़ों से भरी हुई सेना का आवाहन किया, जो दिव्य अस्त्र - शस्त्रों से विभूषित थी। इसके बाद उन्होंने उस महान् भाग्यशाली रथ कों भी वहाँ उपस्थित कर दिया , जिससे उन्होंने त्रिपुर का नाश किया था। फिर पिनाक नामक धनुष अपना खड्ग तथा अस्त्र भी भगवन् त्रिलोचन ने समस्त असुरों का संहार किया था। तदनन्तर महादेवजी ने सेनापति सुदेवसे इस प्रकार कहा। रूद्र बोले - सुदेव ! तुम इस रथ के कारण देवताओं और असुरों के लिये भी दुर्जय हो गये हो , परंतु किसी माया से मोहित होकर अपना पैर पृथ्वी पर न रख देना । इस पर बैठे रहोगे तो समस्त देवताओं और दानवों को जीत लोंगे। यह रथ सहस्त्रों सूर्यांे के समान तेजस्वी है। राक्षस और पिशाच ऐसे तेजस्वी रथ की और देख भी नहीं सकते; फिर तुम्हारे साथ युद्ध करने की तो बात ही क्या है़? इन्द्र कहते हैं - राजन्! तत्पश्चात् सुदेवने उस रथ के द्धारा राक्षसों कों जीतकर बदीं प्रजाओं को बन्धन से छुड़ा दिया और समस्त शत्रुओं का संहार करके वियम के साथ बाहुयुद्ध करते समय स्वयं भी मारा गया, साथ ही इसने उस युद्ध में वियम को भी मार डाला । इद्र बोले - तात ! इस सदेवने बड़े विस्तार के साथ महान् रणयज्ञ सम्पन्न किया था। दूसरा भी जो मनुष्य युद्ध करता है , उसके द्धारा इसी तरह संग्राम - यज्ञ सम्पादित होता है।
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